दशावतार – महत्व
व्याख्या
वेदों में ऐसा वर्णन किया गया है कि भगवान विष्णु ने पृथ्वी का एवं वेदों का उद्धार करने के लिए मछली के रूप में अवतार (मत्स्यावतार) लिया| शक्तिशाली कछुए के रूप में पृथ्वी का भार अपनी पीठ पर उठाया (कूर्मावतार) आपने वाराह के रूप में प्रकट होकर संसार की रक्षा की। नरसिंह रूप में अवतार लेकर राक्षस हिरण्यकश्यपु को मारा, बौने के रूप में प्रकट हो कर राजा बलि को पाताल भेजा (वामन अवतार) परशुराम के अवतार में पृथ्वी पर आकर क्षत्रियों के अहंकार का नाश किया, बलराम के रूप में दुष्टों का दमन किया, राम अवतार में रावण का वध किया। हे करूणा के सागर आप कृष्ण के रूप में सबका उद्धार करने को प्रकट हुए। मैं आपकी शरण में हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ। इस उपर्युक्त पद्य में भगवान हरी के दस अवतारों का वर्णन है।
(1) वेदानुद्धरते : मत्स्यावतार
वेद, भगवान की वाणी है। भगवान ने कहा कि संसार में जब तक वेद पढ़े जायेंगे और लोग उनका सम्मान करेंगे तब तक मैं हमेशा उनकी रक्षा करूँगा । ये वेद, भगवान के बारे में ज्ञान देते हैं। बुराई की गहराईयों के नीचे वेदों और ईश्वर के बारे में ज्ञान समाप्त होता जा रहा था, इसलिए ईश्वर को मत्स्य रूप में संसार को बचाने के लिए आना पड़ा। ईश्वर बुराइयों को नष्ट कर अच्छाइयों को प्रबल करना चाहते थे।
ब्रह्मा के पुत्र मनु एक महान ऋषि थे जिनसे मानव की उत्पत्ति हुई। मनु नदी के किनारे बैठकर तपस्या कर रहे थे और जब ईश्वर बुराईयों का नाश करना चाहते थे तब वह मत्स्य रूप धारण कर मनु के सामने प्रकट हुए। उन्होंने मनु से अपने आपको दूसरे बड़े जीवों से रक्षा करने की प्रार्थना की। मनु ने उस मत्स्य को उठाकर एक छोटे से बर्तन में रख दिया, पर वह मछली इतनी आश्चयजनक थी कि वह रातों-रात बड़ी हो गयी और उस बर्तन में रखने योग्य न रही इसलिये मनु ने उसे बड़े बर्तन में रख दिया. दूसरे दिन वह और बड़ी हो गयी, मनु ने उसे कठवत में रखा। उसके बाद उन्होंने छोटे से तालाब में फिर नदी में फिर समुद्र में डाल दिया। मछली ने कहा, “मुझे बचाने के लिए मैं तुम्हे आशीर्वाद देता हूँ” (मछली के सिर में सींग थी) एक समय ऐसा आयेगा जब सब बुराइयों का अन्त प्रलय द्वारा होगा उस समय सारी पृथ्वी जलमग्न हो जायेगी, ऐसे समय मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम नाव तैयार करो। जिसमें सभी प्रकार के पेड़ पौधे, जीव और सभी कुछ रखो क्योंकि तुम्हें इन वस्तुओं को फिर से संसार में प्रकट करना पड़ेगा, सब कुछ तैयार रखो मैं तुम्हारे पास आऊंगा।
मनु ने सभी कुछ तैयार रखा और जब वह दिन आया तब मनु ने उस नाव को मछली की सींग से बांध दिया। मछली ने उन्हे सुरक्षित स्थान पर रखा जब तक बुराईयों का नाश, प्रलय समाप्त नहीं हो गया। इस प्रकार ईश्वर ने मनु के साथ-साथ सभी लाभकारी वस्तुओं जीवों और वेद के ज्ञान की रक्षा की।
(2) जगन्निवहते – कूर्मावतार
जब देवों और दैत्यों के बीच अमत की खोज के लिये समुद्र मंथन हो रहा था, तब ऐसा समय आया कि मंदराचल पर्वत समुद्र के अंदर धंसने लगा, उन लोगों ने भगवान नारायण से सहायता मांगी। ईश्वर कछुए के रूप में प्रकट हुये और पर्वत के नीचे जाकर बैठ गये तथा पर्वत को अपनी पीठ पर आश्रय दिया । इस प्रकार उन्होंने अमृत निकलने तक समुद्र का मंथन करने में सहायता दी।
यह कथा अच्छाइयों और बुराइयों के बीच युद्ध को दर्शाता है, जो एक दूसरे पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। मँदराचल पर्वत अहंकार को दर्शाता है। रस्सी (साँप) विष है जो कि मनुष्य की बुद्धि के समान है। जब अहंकार और बुद्धि दोनों एक साथ संसार रूपी समुद्र के मंथन का कार्य करते हैं तो परिणाम में चौदह रत्न मिलते हैं, कुछ अच्छे और कुछ बुरे । (हलाहल विष) जब बुरे परिणाम आते हैं तो मनुष्य निराश हो जाता है और जब वह ईश्वर से सहायता मांगता है तो भगवान उसकी रक्षा करने अवश्य आते हैं।
(3) भूगोलम् उदविभ्रते – वराहावतार
हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु दो भाई थे। हिरण्यकश्यपु छोटा था। हिरण्याक्ष बहुत ही शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसका आकार बहुत ही बड़ा और कठोर था। उसने बहुत तपस्या की थी और उसके पास युद्ध में न मरने का वरदान था. (अस्त्र रहित युद्ध) उसको मारना बहुत ही कठिन था। हिरण्याक्ष के बुरे कार्यों से संसार बुराइयों के समुद्र में डूबता जा रहा था। (क्योंकि हिरण्याक्ष द्वारा किये गये कार्य इतने बुरे थे कि संसार में अच्छाइयां खत्म होती जा रहीं थी) इसलिए उन्होंने (भगवान ने) जंगली सुअर का रूप धारण किया क्योंकि मनुष्य का रूप और शक्ति उसे मारने के लिये असमर्थ थी। भगवान ने बाराह रूप में युद्ध कर उसको मार दिया।
हिरण्यकश्यपु उस समय बहुत छोटा था परन्तु बाद में जब उसे यह पता चला कि ईश्वर ने उसके भाई की हत्या की है, यह जानते हुए भी कि कोई भी अस्त्र उसका संहार नहीं कर सकता, ईश्वर ने एक ही बार में उसका संहार कर दिया। उसने ईश्वर से प्रतिशोध लेने की ठानी तथा तपस्या कर अमर होने का वरदान प्राप्त किया।
(4) दैत्यं दारयते – नरसिंह अवतार
हिरण्यकश्यपु ने तपस्या कर ईश्वर का दर्शन प्राप्त किया। ईश्वर ने हिरण्यकश्यपु से कोई वरदान मांगने को कहा, हिरण्यकश्यपु ने कहा “मुझे अमर कर दीजिये|” ईश्वर ने उत्तर दिया, “किसी भी प्राणी या जीव को अमरता नहीं प्रदान की जा सकती इसलीये जब ईश्वर भी पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, तो उनके शरीर का भी अन्त होता है, तुम कोई अन्य वस्तु मांगो।” तब उसने निम्नलिखित वरदान मांगे-
- कोई भी ऐसा प्राणी जो माँ की गर्भ से जन्म न ले, वही मुझे मार सके।
- मेरी मृत्यु न प्रातः काल में हो और न रात्रि में
- कोई भी अस्त्र मुझे मार न सके।
- मेरी मृत्यु ईश्वर, मनुष्य और पशु के द्वारा न हो।
- मेरी मृत्यु न घर के अन्दर हो, और न ही बाहर हो ।
- मेरी मृत्यु न ही भूमि पर हो, न ही आकाश में हो ।
ईश्वर ने “तथास्तु” (ऐसा ही हो) कहा और अंर्तध्यान हो गये। हिरण्यकश्यपु ने सोचा कि उसने ईश्वर को छल लिया है और वह अमर हो गया है। वह शक्ति से उन्मत्त हो गया। उसने ऋषियों से ईश्वर के स्थान पर अपना नाम जपने के लिए कहा क्योंकि वह नारायण के समान थे, परन्तु जब ऋषियों ने उसकी बातों को कोई महत्व नहीं दिया, तब उसने उन सबको कारागृह में डाल दिया। वह ऐसे कार्य करने लगा जिससे बुराईयाँ बढ़ती गईं। तभी प्रह्लाद ने जन्म लिया, प्रहलाद आस्तिक था (ईश्वर के वरदान से जन्मा हुआ) वह सारा दिन नारायण जपता था। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद के लिए ऐसा गुरु नियुक्त किया जो कि उसे यह बता सके कि उसके पिता भगवान हैं। प्रह्लाद अपने गुरु के वाक्यों पर अमल करता था किन्तु वह प्रार्थना नारायण की करता था । अन्त में हिरण्यकश्यपु इतने क्रोधित हो गये कि वह प्रह्लाद को मारने के लिए तैयार हो गये। हिरण्यकश्यपु ने कई बार, वार किये किन्तु भगवान नारायण ने प्रह्लाद की रक्षा की।
हिरण्यकश्यपु ने जब यह देखा कि उसके सारे प्रयत्न विफल हो रहे हैं तो वह अत्यन्त क्रोधित हुआ। एक बार प्रह्लाद ईश्वर का नाम लेते हुए अपने पिता के पास आये, उस समय ऋषि नारद वहाँ थे, उसी क्षण उन्होने कहा- “हिरण्यकश्यपु तुमने बहुत लोगों को अपना नाम न लेने के अपराध में कारागृह में डाल दिया है और देखो तुम्हारा स्वयं का पुत्र नारायण का नाम जप रहा है।” हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद से क्रोध पूर्वक पूछा, “तुम्हारे नारायण कहाँ हैं? प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “वह सर्वव्यापी हैं।” हिरण्यकश्यपु ने खम्भे की तरफ देख कर कहा कि “क्या ईश्वर इसमें भी है?” प्रह्लाद ने कहा, “हाँ”| हिरण्यकश्यपु ने क्रोध पूर्वक खंभे को तोड़ दिया और वास्तव में भक्त प्रह्लाद द्वारा कहे गये वाक्य सत्य हो गये, ईश्वर नरसिंह (आधा नर, आधा सिंह) के रूप में प्रकट हो गये। हिरण्यकश्यपु भयभीत हो गया किन्तु प्रह्लाद नहीं भयभीत हुआ, वह ईश्वर के चरणों में गिर गया। ईश्वर ने हिरण्यकश्यपु को पकड़ा और देहली (दो कमरों के बीच का स्थान) पर बैठ गये और उसे अपनी गोद में दबा कर रख लिया। ईश्वर ने कहा, “देखो, हिरण्यकश्यपु मैं तुम्हारे सारे वरदानों को पूर्ण कर रहा हूँ, और तुम्हे मार भी रहा हूँ। ईश्वर को छल लेने का तुम्हारा विचार छलावा था | यद्यपि तुम्हारे सारे वरदान पूर्ण हो रहे हैं, फिर भी तुम अमर नहीं हो ।
- मैंने किसी गर्भ से जन्म न लेकर, खंभे से जन्म लिया है।
- इस समय न प्रातः काल है न रात्रिकाल है (सायंकाल है)
- मेरे पास कोई अस्त्र नहीं है (सिर्फ नाखून हैं)
- मैं न तो ईश्वर हूँ, न मनुष्य हूँ और न ही पशु हूँ परन्तु तीनों का समन्वय हूँ।
- मैं न तो घर के अन्दर बैठा हूँ और न ही घर के बाहर (देहली पर बैठा हूं)
- मैं न तो तुम्हे भूमि पर मार रहा हूं न ही हवा में ( तुम हमारी गोद में हो)
ऐसा कह कर उन्होने हिरण्कश्यपु के पेट को चीर दिया और उसे मार दिया।
(5) बलिं छलयते – वामन् अवतार
बलि दैत्यों का राजा था लेकिन फिर भी उसमें बहुत अच्छे गुण थे। वह बहुत उदार थी और सदा अपनी बातों पर दृढ़ रहता था, वह ईश्वर का भक्त था। उसमें केवल एक अवगुण था कि वह अपने से बड़ों और धार्मिक पुस्तकों का आदर नहीं करता था। इसका कारण उसका अहंकार और घमंड था। अपने अहंकार के फलस्वरूप वह, यह सोचता था कि उसके पास दूसरों से अधिक ज्ञान है। वास्तव में ईश्वर अहंकारी भक्तों को नहीं चाहते क्योंकि अहंकारी व्यक्ति सदैव गिरता है और ईश्वर नहीं चाहता कि उनके भक्त का पतन हो। इसलिए ईश्वर ने सोचा कि वह राजा बलि को सबक सिखायेंगे और उसके अहंकार को नष्ट करेंगे।
एक बार बलि ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें ईश्वर बौने ब्राह्मण का रूप धारण करके आये और बलि को समझाने का निर्णय किया। (ईश्वर वामन के रूप में इसलिये आये थे जिससे बलि उन्हें पहचान न सके और उनके द्वारा मांगी हुई वस्तु उन्हें दे सके) जब राजा बलि यज्ञोपरान्त दान दे रहा था उसी समय वामन रूप में ईश्वर ने बलि से कहा, “हे राजा! मैं तुमसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ और तुमसे अपने तीन कदमों के बराबर जमीन माँगता हूँ।” बलि ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया लेकिन बलि के गुरु शुक्राचार्य ने ईश्वर को पहचान लिया और बलि से कहा कि वह वामन की प्रार्थना स्वीकार न करें। बलि ने अपने गुरु की आज्ञा नहीं मानी और कहा कि मैंने एक बार वचन दे दिया है अतः उसके अनुसार ही कार्य करूंगा।
जब बलि अपने दान को पूरा करने के लिए कमण्डल से जल निकालने लगा तब गुरु शुक्राचार्य ने (अपने शिष्य की रक्षा करने के लिये )छोटी मक्खी का रूप धारण कर लिया और कमण्डल के मुख्य द्वार को बन्द कर दिया। बलि ने दमी घास (जो कि नुकीली होती है) की अँगुठी पहनी थी, उस अंगूठी से कमण्डल के मुख में छेद कर दिया । तत्पश्चात् प्रभु की हथेली पर पानी की धार गिराई । उसके इतना करने पर ईश्वर ने अपना विराट रूप धारण कर लिया । अपने पहले कदम में ईश्वर ने सम्पूर्ण आकाश अर्थात् स्वर्गलोक को और दूसरे कदम में पृथ्वी अर्थात् भूलोक को नाप लिया। तीसरे पग के लिए) उन्होने बलि से कहा कि अब वह अपना तीसरा कदम कहाँ रखें। बलि ईश्वर का भक्त और सर्वशास्त्र ज्ञानी होने के कारण ईश्वर के आगे नतमस्तक हो गया और कहा “हे प्रभु आप इसे मेरे सिर पर रखें। क्योंकि अगर आपने तीसरा कदम मेरे सिर पर रखा तो मुझे आपका आशीर्वाद प्राप्त होगा।” इसलिए ईश्वर ने अपना तीसरा कदम बलि के सिर पर रखा और उसे पाताल लोक (भूमि के नीचे ) ढकेल दिया और कहा, “बलि, अब से तुम पाताल लोक के राज्य का शासन करो।” (बलि को मारा नहीं गया उसे केवल दंड दिया गया क्योंकि उसमें बहुत से अच्छे गुण भी थे।)
(6) क्षत्रक्षयं कुर्वते – परशुराम अवतार
परशुराम ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे। उनकी माता रेणुका देवी थी। परशुराम शिव के अवतार थे। जमदग्नि को भगवान शिव ने आशीर्वाद दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। जमदग्नि के तीन पुत्र थे, परशुराम सबसे छोटे थे। ऋषि जमदग्नि दुर्वासा मुनि की तरह क्रोधी थे। एक दिन उनकी पत्नी रेणुका देवी नदी में पानी भरने गई तो उन्होंने कुछ अप्सरायें देखी जो कल्लोल कर रहीं थीं। उनको अपने पति के साथ वही सब करने की इच्छा हुई, जब घर वापस आई तो ऋषि उनकी इच्छा को भाँप गये और बहुत क्रोधित हुये (क्योंकि वह ऋषि थे ओर वे उन सब चीजों से परे थे) उन्होंने अपने बड़े पुत्र को अपनी माँ का सिर काटने को कहा। बड़ा पुत्र यह न कर पाया, फिर उन्होने उससे छोटे पुत्र को कहा परन्तु वह भी यह न कर पाया, अंत में उन्होने परशुराम से कहा। उन्होने कुल्हाड़ी उठाई और अपनी माँ का सिर काट दिया। ऋषि अपने आज्ञाकारी पुत्र से प्रसन्न हुए और उससे कुछ भी माँगने को कहा। परशुराम ने माँ को पुनः जीवन प्रदान करने को कहा। ऋषि ने तब अनुभव किया कि क्रोध को मार्ग देना गलत है। उन्होंने तपस्या द्वारा अपने क्रोध को वश में कर लिया और सब कुछ छोड़ दिया।
उस समय राजा कीर्तिवीर्य अर्जुन का शासन था जो बहुत ही चालाक और शक्तिशाली था। एक बार जब परशुराम तपस्या करने के लिए गये थे तब राजा ने ऋषि जमदग्नि पर आक्रमण किया और उनकी हत्या कर दी। चूंकि ऋषि क्रोध त्याग चुके थे इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा जब परशुराम लौट कर आये और उन्होंने अपने पिता को मृत देखा तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने राजा कीर्तिवीर्य अर्जुन, जो कि शस्त्र अर्जुन के नाम से भी जाने जाते थे, को मार दिया। (शस्त्र अर्जुन इसलिये नाम पड़ा क्योंकि उनके पास हजारों शस्त्र थे) उस समय सारी शक्ति क्षत्रियों के हाथों में थी। उन्हें अपनी शक्ति पर बहुत घमण्ड था और वे उसे बुरे कार्यों के लिए प्रयोग करते थे। यह समय अहंकार का विनाश कर सबक सिखाने का था। तीस बार के युद्ध में उन्होंने ऐसे सभी क्षत्रिय राजाओं की हत्या कर दी। उस समय में इक्ष्वाकु की मां गर्भवती थी। (इक्ष्वाकु रघु राज्य के पहले राजा थे) इसलिए ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें और उनके गर्भ में पल रहे बालक को बचाने के लिये गुफा में छुपा दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि रघु, दिलीप और दशरथ जैसे बड़े राजा इसी राज्य में जन्म लेंगे। इस प्रकार सूर्यवंश की रक्षा हुई। जिसे बाद में रघुवंश के नाम से जाना गया। परशुराम को यह ज्ञान था कि अगला अवतार भगवान राम का होगा। उनके पास एक दिव्य बाण था। यह दिव्य इसलिए था क्योंकि यह भगवान विष्णु का था। यह बाण मुख्य रूप से त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए था। परशुराम वह वाण भगवान राम को देना चाहते थे क्योंकि कोई भी अन्य व्यक्ति उसे लेने के योग्य न था । इसलिए वे जनकपुरी में सीता स्वयंवर के समय राम के पास आये और उन्हें ललकारा जैसे ही श्री राम ने परशुराम का धनुष अपने हाथों में लिया, वे चमकने लगे और परशुराम शक्तिहीन हो गये तदुपरान्त वे बद्रीनाथ चले गये और कहा कि उनके अवतार का काम पूर्ण हो गया है।
(7) पौलस्त्यं जयते – राम अवतार
पौल्यतस्य ऋषि पुलिस्त के पुत्र थे। रावण को ही पौल्यतस्य कहा जाता है क्योंकि वह ऋषि पुलिस्त् के पुत्र थे जो भगवान राम के द्वारा मारे गये ।
भगवान राम अपने पिता दशरथ के द्वारा रानी केकैथी को दिये गये वचन को पूरा करने के लिये वन गये। वहां पर रावण के मामा मारीच जो कि एक राक्षस था आया, उसने सुनहरे हिरण का रूप धारण किया। सीता उस हिरण के रूप से बहुत प्रभावित हुई और भगवान राम से उस हिरण को लाने के लिए कहा। जब भगवान राम हिरण को लाने वन में गये, तब रावण एक साधु का रूप धारण कर भिक्षा मांगने आया। जैसे ही सीता उसे भिक्षा देने कुटिया से बाहर आयीं, उसने उनका हाथ पकड़ा और अपने रथ पर बैठा लिया। वह सीता को अपने राज्य लंका में ले गया। जब वह लंका की ओर जा रहा था, तो पक्षी जटायु जो कि श्री राम का भक्त था, उसने सीता का करूण क्रंदन सुना और उनकी रक्षा के लिए रावण पर आक्रमण कर दिया, लेकिन जटायु युद्ध में मारा गया। जब श्री राम कुटिया में वापस आये तो उन्होंने सीता को न पाया। वे सीता की खोज के लिए वन वन भटकने लगे। उनकी भेंट वानरों के राजा सुग्रीव से हुई। उन्हें सुग्रीव द्वारा उनके चालाक भाई बालि का पता चला । श्रीराम ने सुग्रीव को वचन दिया कि वह उसका राज्य पुनः दिलायेंगे। बालि को मारने के पश्चात् श्री राम ने सुग्रीव को उसका राज्य वापस करवाया।
सुग्रीव ने अपने प्रमुख एवं मित्र हनुमान को सीता की खोज के लिये भेजा। हनुमान समुद्र पार कर लंका पहुँचे। उन्होंने दुष्ट रावण को दण्ड देने के लिये लंका को जला दिया और वह सीता का संदेश लेकर श्रीराम के पास लौटे। सुग्रीव और उनकी सेना की सहायता से श्री राम ने रावण से युद्ध किया। युद्ध में उन्होने रावण और उसके दुष्ट भाई कुम्भकरण का वध किया। युद्ध समाप्ति के पश्चात् श्री राम ने विभीषण (रावण का छोटा भाई जो राम का भक्त था) को लंका का राजा बनाया और सीता के साथ अयोध्या वापस आ गये।
(8) हलं कलयते – बलराम अवतार
बलराम वसुदेव की पत्नी रोहिणी के पुत्र तथा कृष्ण के बड़े भाई थे। बलराम को हलधर के नाम से भी जाना जाता है। हलघर शेषनाग (सर्प) के अवतार के रूप में जाने जाते हैं। ‘हलघर’ का अर्थ है ‘हल को पकड़ना’। हल बलराम का एक मात्र अस्त्र था। बलराम देवकी के सातवें पुत्र थे परन्तु अगर वह देवकी के गर्भ से जन्म लेते तो कंस द्वारा उनकी हत्या हो जाती इसलिए ईश्वर की इच्छानुसार वे देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में प्रविष्ट हो गये, जो वसुदेव की दूसरी पत्नी थीं। उन्होंने वकासुर, धेनुवासुर, वृत्रासुर नामक दैत्यों को मारने में भगवान कृष्ण की सहायता की थी उन्होंने कंस के दरबार में चनुर नामक बाहुयोद्धा का वध किया था।
वह कृष्ण अवतार को मार्ग दर्शन करने आये थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध के पश्चात् उनका अवतार समाप्त हो गया था। वह तपस्या करने के लिए हिमालय पर्वत पर चले गये और अर्न्तध्यान हो गये ।
(9) कारुण्यमातन्वते – कृष्ण अवतार
भगवान कृष्ण के अवतार की कहानी है।
(10) म्लेच्छान् मूर्छयते – कल्कि अवतार
(हमारे साई भगवान) भागवत पुराण में कहा गया है कि कलियुग में भारत के दक्षिण भाग में नदी के किनारे कल्कि अवतार होगा। मेघमंडल के समान उनके केश मुलायम एवं घुंघराले होंगे। उनका कद छोटा और रंग सांवला होगा। वह लाल रंग का चोला पहनेंगे, उनके पास कोई अस्त्र नहीं होगा। वह सफेद घोड़े पर सवार होंगे और यह घोड़ा कलियुग की बुराईयों को नष्ट करेगा। यह कल्कि अवतार कौन हो सकता है? यह हमारे साई भगवान हैं। इनके पास कोई अस्त्र नहीं है, यह शुद्धता के सफेद घोड़े पर सवार हैं। सत्य, धर्म शांति और प्रेम घोड़े के चार पैर हैं जो कलियुग की बुराईयों को दूर करेंगे।
भगवान के दस प्रमुख अवतार और उनका शाश्वत संदेश
- मत्स्य: संदेह के प्रलय से ज्ञान के खजाने को पुनः प्राप्त करें।
- कूर्म: इस जीवन और उसके बाद भी अनासक्त स्वामी के रूप में रहते हैं।
- वराहः अनुशासन और भक्ति के जुड़वांँ दांँतों पर कर्तव्य का भार वहन करते हैं।
- नरसिंह: भगवान की महिमा की आड़ में अपने अहंकार को छिपने न दें।
- वामन: अपने आप को भगवान के चरणों में अर्पित कर उनके चरणों में स्थान प्राप्त करें।
- परशुराम: समर्पण या कष्ट का पाठ सीखें।
- श्रीराम : जीवन में जो प्राप्त होता है वह नियति है और कैसे मिलता है वह आत्मप्रयास है।
- कृष्ण: भगवान के हाथों का एक यंत्र बनने का प्रयास करें।
- बुद्ध: स्वयं को परिपूर्ण करें ताकि आप दूसरों को पूर्ण बनने में उनकी सहायता कर सकें।
- कल्कि : सत्य, नैतिकता, शांति, प्रेम और अहिंसा (सत्य, धर्म, शांति, प्रेम, अहिंसा) पर जीवन का भवन निर्मित करें।