भज गोविन्दम्
एक प्रचलित कथा उन परिस्थितियों का वर्णन करती है जिन स्थितियों में शंकराचार्य ने इस श्रेष्ठ गीत की रचना की। ऐसा कहा जाता है कि एक दिन जब वे अपने सभी चौदह शिष्यों के साथ नित्य भ्रमण पर वाराणसी में घूम रहे थे, उसी समय उन्होंने एक वृद्ध पंडित को पाणिनी के व्याकरण सिद्धान्तों को याद करते हुए सुना। शंकराचार्य उस व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता पर करुणा से विचलित हो गए। क्योंकि मूल्यवान मानव जीवन के अन्तिम काल में भी वह व्यक्ति स्वयं ही बाह्यज्ञान को प्राप्त करना चाहता था। अब कम से कम अन्तिम समय में तो उसे भगवान का ध्यान करना चाहिए और उनसे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना करनी चाहिए ताकि वह इस संसार के बंधन से मुक्ति पा सके। वे जानते थे कि यह स्थिति मात्र उस वृद्ध की नहीं है, संसार के सभी मनुष्यों की यही स्थिति है। मनुष्य सांसारिक मोह माया से ग्रस्त हो निरर्थक कार्यों में अपना समय व्यर्थ ही, नष्ट करता रहता है और अपने जीवन के यथार्थ लक्ष्य पर ब्रह्म को भूल जाता है। मनुष्य की इसी स्थिति से द्रवित होकर शंकराचार्य ने जिस गीत की रचना की वह मोह मुदगर नाम से प्रसिद्ध है। यही गीत जन-जन में भज गोविन्दम् के नाम से विख्यात हुआ।
“हे अज्ञानी। हे मूढ़मति। जब तुम्हारा अन्तिम समय सन्निकट होगा उस समय व्याकरण के ये नियम (अर्थात् यह सांसारिक शिक्षा) तुम्हारा साथ नहीं निभाएंगे। अपने जीवन का मूल्यवान समय इस प्रकार व्यर्थ नष्ट करने की बजाए गोविन्द के दर्शन करने का प्रयास करो क्योंकि वे ही जन्म-मृत्यु के चक्र से तुम्हारी रक्षा कर सकेंगे।
शंकराचार्य की भारतीय ग्रन्थों पर भाष्य के समान विस्तृत रचनाओं की तुलना में भज गोविन्दम् एक बहुत छोटी रचना है। भज गोविन्दम् आत्मबोध आदि प्रकरण ग्रन्थों की श्रेणी में आते हैं। ये पुस्तिकाएं प्रवेशिका कहलाती हैं जिनमें अध्यात्म के मार्ग पर चलना प्रारंभ करनेवालों के लिए कुछ दार्शनिक शब्दों की व्याख्या की गई है। इन पुस्तिकाओं में मनुष्य को आध्यात्म का प्रारंभिक ज्ञान दिया गया है जो उसे यह सोचने पर बाध्य करता है कि आह, क्या यही जीवन है? मुझे अवश्य ही इस कारागर से मुक्ति प्राप्त करनी है और इस कार्य में भगवान मेरा मार्गदर्शन करें और मेरी सहायता करें। इस प्रकार मनुष्य, जीवन की कीचड़ भरी पगडंडियों से निकल कर आध्यात्म के राजमार्ग पर आ जाता है और ईश्वर की ओर बढ़ चलता है।