धर्मनिष्ठ गांधारी
कुरुक्षेत्र युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्ध में धृतराष्ट्र के सभी पुत्र मारे गए। विगत रात्रि पांडवों के शिविर में सामूहिक नरसंहार देखा गया, जिसमें बच्चे, उन बच्चों के बच्चे और विजयी जन के मित्र, सभी का संहार कर दिया गया। प्रातः का सबेरा बर्बाद और निराश परिजनों का था। सच है, पांडव और कृष्ण बिना किसी चोट के विजयी हुए परंतु उनकी तमाम आशाओं का धूमिल (मिटना) होना भी इसी में व्याप्त है। अब से राज्य उनका था, परंतु बिना एक भी उत्तराधिकारी के किसके भरोसे छोड़ दिया जाए। सिंहासन तो सुरक्षित था परंतु घर खाली था।
दूसरी तरफ कौरवों की दुःखी नारियां अपने मृतकों का शोक प्रकट करती दिखाई दे रही थीं। पांडवों ने जब उन पर दृष्टिपात (देखा) किया तो वे कांप गए। उस मैदान में धृतराष्ट्र के सौ पुत्र मृत पड़े थे।
कुछ लोग पीछे की तरफ दूसरे लोगों से अलग हटे हुए थे, न केवल अपने पद के कारण अपितु उनके कई प्रकार के दुःख (वियोग) के कारण, उनके वृद्धजन और उनकी दृष्टिबाधिता, महारानी गांधारी और महाराजा धृतराष्ट्र अपने शाही वाहन में बैठे थे। वे हारे हुए कुलवंश के प्रधान थे और वैसे भी विजयी परिवार के वंशज तो थे ही। उनके लिए पांडवों के साथ भेंट, युधिष्ठिर की विजय की अपेक्षा उसकी अधीनता (दास्ता) स्वीकृति की संभावना अधिक दिखाई दे रही थी। युवराज युधिष्ठिर धर्मराज, धर्मनिष्ठ, जैसा कि उसे कहा जाता रहा है, अपने चारों भाईयों के साथ, द्रोपदी और कृष्ण सहित उनके चरण स्पर्श कर शांत मुद्रा में उनके समक्ष खड़े हो गए। दाएँ, न्याय संगत वृद्धा गांधारी अपने दुखों के साथ थी। धृतराष्ट्र, उसके पति, जन्मान्ध थे परंतु पत्नित्व के समर्पणवश अपनी स्वेच्छा से उसने अपनी आँखों को पट्टियों द्वारा ढँक रखा था और ईमानदारी पूर्वक पति के साहचर्य में आजीवन वह आँखों पर पट्टी बाँधे रही। और इसके द्वारा उसके भीतर आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि समाई थी। उसकी वाणी मानो होनी की संभावना होती थी। उसका पूर्व कथन था जो होना होता है वह होकर ही रहता है।
युद्ध के दौरान जब एक सुबह दुर्योधन उसके पास, उस दिन से आरम्भ होने जा रहे युद्ध में विजयी होकर लौट आने का आशीर्वाद लेने आया था, उसने केवल इतना ही कहा था – “मेरे पुत्र, विजय सत्य का अनुगमन करेगी।” आरम्भ से वह जानती थी कि कुरुक्षेत्र (युद्ध) उसके समस्त कुल का अंत देखेगा। उसका हृदय अभी भी इतना कठोर था कि वह अपने स्वयं के पुत्रों की समाप्ति के लिए रोने की अपेक्षा अपने पति के दुःख और एकाकीपन के लिए रो रही थी और यह बिलकुल सच था, यदि धृतराष्ट्र स्वयं की (शक्तिहीनता) कमजोरी और इच्छा नहीं होती तब उन्हें इस दिन के विनाश को देखने की आवश्यकता ही नहीं थी, यह वह अच्छी तरह जानती थी। उसकी स्वयं की अडिग इच्छा शक्ति कभी भी नहीं डगमगाई। अपने हृदय में गुप्तरूप से न्यायोचित मानते हुए उसने एक पल भी कभी साम्राज्य (प्रभुत्व) के लिए इच्छा नहीं की। परंतु इन दुःख के क्षणों में जब उसके पति स्वयं ही अपने लिए किए गए फैसले के दुर्भाग्य से टूट चुके थे, उन्हें गहन सहानुभूति अनुभूत कराना आवश्यक था। इस दुःख की घड़ी में संपूर्ण विश्व के लिए गर्वित और हठधर्मी गांधारी, अत्यंत विनम्र और आत्मीय उसकी पत्नी के रूप में उसके साथ थी।
वह जानती थी कि घनीभूत पीड़ा की इस घड़ी में उसकी धर्म परायणता द्वारा स्व अर्जित शक्ति नष्ट हो जाएगी और यह युधिष्ठिर के लिए हानिप्रद होगा जो कि उसे नमन करने आया है। अतः उसने जोर लगा कर उन शक्तियों को रोक दिया और अपनी दृष्टि नीचे झुका ली, उनके हाथों में लिपटते हुए, उनके पैर के ऊपर और एसा कहा जाता है कि उसकी केन्द्रबिन्दु पर जहाँ वह दृष्टिपात कर रही थी एक ज्वाला ज्योति प्रकट हुई अर्थात् उसकी दृष्टि इतनी गहन तेजस्वी थी। परंतु जब वह विनम्रतापूर्वक द्रौपदी और पांडवों की माता से बात कर रही थी गांधारी ने अन्य लोगों से अलग होकर स्वयं ने कृष्ण को संबोधित किया। केवल भगवान कृष्ण के साथ उसे स्वनियंत्रण की आवश्यकता नहीं थी। भगवान के हाथों में हाथों डाल कर, सभी के ऊपर दृष्टिपात करते हुए सबके लिए विचार करते हुए वह अपने हृदय का सब कुछ कहने को तैयार थी।
“हे कमलनयन भगवान,” वह आर्त स्वर में बोली, “ये मेरे घर की कुलवधुएँ, अपने स्वामियों की विधवाएं इनकी पीड़ा की पुकार सुनो। उनके मृत शरीर के ऊपर गहन विलाप सहित वे स्मरण करा रही हैं भारत के वीरों को। देखो! वे स्त्रियाँ अपने पतियों, पिताओं को, पुत्रों तथा भाईयों को खोज रहीं हैं। संपूर्ण मैदान ही इन शिशुविहीन माताओं और वीरों की पत्नियों से ढँका हुआ है। यहाँ है उन वीर योद्धाओं के शरीर जो अपने जीवनकाल में अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला जैसे थे। परंतु अब जंगली हिंसक शिकारी पशु अपनी इच्छानुसार निर्भय होकर मृतकों के बीच चक्कर लगा रहे हैं। कितना वीभत्स (डरावना) है, ओह! कृष्णा, क्या यह रणभूमि है? इस दृश्य को देखकर, हे सर्वशक्तिमान, मैं दुःख की अग्नि में जल रही हूँ। ओह! अब यह संपूर्ण सृष्टि (ब्रह्मांड) कितनी शून्य (रिक्त) हो गई है? ओह, कृष्ण दो सेनाएं यहाँ समाप्त हो चुकीं। जब वे परस्पर एक दूसरे को समाप्त कर रहे थे, तुम्हारे नेत्र क्यों बंद थे? तुमने सबके मन में इस बुराई को आने ही क्यों दिया?” – उसने कृष्ण को उलाहना दिया।
जैसे ही गांधारी ने अपनी बात समाप्त की, भगवान कृष्ण ने उसकी तरफ प्रेमपूर्वक देखा और मुस्कुराए। तब परमपवित्र शूरवीर (कृष्ण) गांधारी के लिए नीचे झुके। “उठो उठो, गांधारी,” उन्होंने कहा, “और तुम्हारे हृदय में दुःख पीड़ा को स्थान मत दो। दुःख का अनुभव करने से मनुष्य इसमें दुगुनी वृद्धि करता है। सोचो, पुत्री, ब्राह्मण स्त्री तप के लिए संतान को जन्म देती है। गौमाता भार वहन करने के लिए बछड़े को जन्म देती है। श्रमिक स्त्री श्रमिक बनाने के लिए अपनी वंश-वृद्धि करती है परंतु तेजस्वी व शूरवीरों का जन्म एवं नियति रणभूमि में प्राण त्याग देने के लिए ही होती है।” रानी ने कृष्ण के शब्द शांतिपूर्वक सुने। उनकी सच्चाई को अच्छी तरह समझ लिया। दुःख तथा निराशा उसके बाहर, चारों तरफ और भीतर बिखरी हुई थी। अब वन में तप तथा संयमित जीवन व्यतीत करने अलावा उन्हें और कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। इतनी बड़ी घटनाओं के द्वारा उसने संसार का वास्तविक रूप देखा और सभी को असत्य (धोखा, झूठ) पाया। आगे कुछ भी कह देने के लिए शेष नहीं था और वह चुप हो गई। तत्पश्चात् वह और धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर सहित अन्य योद्धाओं के साथ अपने अज्ञानतावश उत्पन्न दुःख को नियंत्रित करते हुए गंगा किनारे मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए एक साथ चल दिए।