योगक्षेमं वहाम्यहम
एक बार एक महा विद्वान पंडित, एक प्रख्यात महाराजा की उपस्थिति में, भगवद्गीता का प्रवचन दे रहे थे। एक दिन उन्हें भगवद्गीता के निम्न श्लोक के लिए भाषण [व्याख्यान] देना पड़ा।
वह श्लोक यह था:–
“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते,
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमम् वहाम्यहम||”
पंडितजी बहुत उत्साह से उस श्लोक के भावार्थ की विविध प्रकार से व्याख्या कर रहे थे। परंतु राजा ने उन सब को सुनकर सिर हिलाते हुए,– “इसका अर्थ ठीक नहीं” बताकर अस्वीकार कर दिया। पंडितजी ने जो-जो विवरण दिया, उन सब में हर एक को गलत बताकर राजा ने उनसे बहस की।
अभागे पंडितजी! वे तो कई राजसभाओं में मान-सम्मान सहित रहनेवाले और कई उन्नत उपाधियाँ प्राप्त थे। उतनी बड़ी सभा में, उतने सभासदों के सामने, उस श्लोक के लिए दिए गए अपनी व्याख्या को कठोरता से, महाराजा के ‘गलत’ कहने से, इस चुभन से, पंडितजी बहुत व्यथित हो गए। अपमान की गहरी चोट से वे अत्यंत दुखी हुए|
एक बार फिर, उन्होंने हिम्मत बाँधकर अपने काम को जारी रखने की कोशिश की। प्राप्त किये हुए अपने सारे ज्ञान को एकत्रित करके, बिना रुकावट के, फिर एक बार प्रवचन देने का कठिन प्रयास किया। ‘योग’, ‘क्षेमम्’ – इन शब्दों के अर्थों को कई गुणा विस्तृत करके, कई तरीकों में व्याख्या करने लगे। बल्कि राजा ने तब भी उनके विवरण को स्वीकार नहीं किया। “इस श्लोक का ठीक अर्थ खोजकर, उसे खूब समझकर कल और एक बार आइए” – ऐसा हुकुम देकर, सिंहासन से उठकर राजा अंदर चले गए। पंडितजी के पास जो कुछ धैर्य बाकी था, वह भी राजा के वचनों से एकदम टूट गया। उनका मन चिंता से भारी हो गया। अपमान से वे अस्थिर हो गए, घर जाकर भगवद्गीता को एक ओर रखकर, बिस्तर पर गिर पड़े।
उनकी हालत देखकर उनकी पत्नी विस्मय और घबराहट में, उनके पास आयी। बड़ी करुणा से उनसे पूछा कि आज राजमहल से आप क्यों इतने व्याकुल होकर आये हैं, कृपया मुझे बताइये, वास्तव में वहाँ क्या हुआ? बड़ी चिंता से, प्रश्न पर प्रश्न पूछने पर, पंडितजी को उनसे, सारा वृत्तांत कहना पड़ा। अपने सिर पर लादे हुए अपमान, राजा के हुकुम देकर घर वापस लौटाना जैसे विषयों को उन्होंने पत्नी से ठीक-ठीक बताया। उन्होंने जो-जो बताया उन सब को पत्नी ने चुप-चाप रहकर, शांति से सुना। फिर उन घटनाओं के बारे में खूब गहन विचार किया। और बोली, “ओह! राजा ने जो कहा ठीक ही कहा, वे बहुत गहन विचारक हैं, आपने उस श्लोक की जो व्याख्या की, वह ठीक नहीं है! फिर राजा उसे कैसे स्वीकार करेंगे? इसलिए गलती तो आपकी है” – ऐसा पत्नी ने कहा।
उसे सुनते ही, चोट खाये नाग की तरह फुफकारते हुए, पंडितजी नाराज होकर पलंग से तेजी से उठे, बोले “मूर्ख स्त्री! उस श्लोक के बारे में तुम क्या जानती हो? क्या, तुम मानती हो कि, तुम मुझ से ज्यादा बुद्धिमान हो? हमेशा पाकशाला में, खाना पकाने और परोसने में ही डूबी रहनेवाली, तुम अपने आप को मुझसे बढ़कर अधिक शिक्षित समझती हो क्या? मुँह बंद करके, मेरे सामने से हट जाओ”- पंडितजी जोर से चिल्लाए। पर वह उस जगह से नहीं हटी। पैरों को जमीन पर मजबूती से जमाकर अटल रही।
फिर बहुत कोमल स्वर में इस प्रकार समझाकर उनके मन को आश्वासन और प्रशांति दी कि प्रभु, मामूली [सामान्य] सत्य को बताते समय आप क्यों नाराज होते हैं? उस श्लोक के अर्थ को एक बार खूब सोच-विचार करके देखिये, तब आप ही सही उत्तर प्राप्त कर सकते हैं। पंडितजी ने श्लोक के हर एक शब्द को लेकर, उसके अर्थ का विश्लेषण करने की कोशिश की। ‘अनन्या, चिन्तयन्तो, मा’ आदि शब्दों को सावधानी से घीमे स्वर में शुरू करके उन के लिए कई प्रकार के अर्थों को मुँह खोलकर बोलने लगे।
इतने में उनकी पत्नी ने उनको बीच में ही रोककर पूछा, “शब्दों के अर्थों का विश्लेषण करने को सीखने से क्या फायदा होता है? राजा के निकट पहुँचते समय, आपका क्या ख्याल था? उनके यहाँ जाने का, आपका क्या कारण है? बताइये|” फिर एक बार पंडितजी को और भी क्रोध आ गया। उन्होंने गुस्से में आग बबूला होकर कहा, “मैं इस परिवार का संचालन कैसे करूँ? इस घर को कैसे चला सकूँ? तुम्हें और बाकी लोगों के लिए आवश्यक खाना, कपड़ा और अन्य सुविधाएँ, मैं कैसे व्यवस्था कर सकूँगा? इन कारणों के लिए ही मैं राजा के पास गया था। नहीं तो उनसे क्या काम है मेरा?”
तभी उनकी पत्नी ने उन्हें शांत स्वर में समझाया – “अगर आप सिर्फ यह समझ सकते थे कि भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक के जरिए क्या [अंतर्निहित] भाव प्रकट किया है तो, आपको राजा के पास जाने की जरूरत नहीं होती, और कोई चिंतित न होकर, अगर, भगवान से सरल भाव से प्रार्थना करता रहता है तो, और उन्हीं के शरण में रहता है, लगातार उसका मन उनके ध्यान में ही रहता है तो, भगवान् ऐसे भक्त के लिए आवश्यक सब सुविधाएँ अपने आप ही जुटा देंगे – इसी भाव को ही स्वामी ने इस श्लोक के द्वारा प्रकट किया है। इन तीनों स्वभावों [प्रकृतियों] को ही आप, स्वयं पर लागू न कर सके। आप इस यकीन के साथ ही राजा के पास गए थे कि सिर्फ राजा ही आपकी जरूरतें पूरी करेंगे। इस श्लोक के अंतर्निहित भाव से हटकर आप गलत मार्ग पर चले गए। राजा ने भी इसी कारण से ही आपका विवरण स्वीकार नहीं किया|”
पंडितजी थोड़ी देर तक उसके विशिष्ट बातों पर ही गहरी चिंतन करते हुए अचल बैठे रहे और अब तक किये गए अपने दोष [गलती] को समझ गए। इसलिए अगले दिन राजमहल की ओर वे नहीं गए । उसके बदले, भगवान् श्री कृष्ण की प्रार्थना में तीव्र गति से पूरे दिल लगाकर बैठे रहे।
राजा ने सभासदों से पूछा कि पंडितजी, आज क्यों नहीं आये? इसपर मंत्री गण ने बताया कि वे घर में ही रुक गए और राजदरबार आने का विचार, उन्होंने त्याग दिया है। तुरंत राजा ने उनको बुला लाने के लिए एक आदमी को भेजा। आदमी के बुलाने पर भी पंडितजी ने दृढ मन से जवाब दे दिया कि वे नहीं जाएँगे।
पंडितजी ने उस आदमी को यह कह कर लौटा दिया कि, मुझे किसी के भी समक्ष हाथ पसारने की आवश्यकता नहीं है, मेरे भगवान् श्री कृष्ण, अपने यथार्थ स्थान से ही मेरे लिए सब कुछ दे देंगे। इस बात को पहले ही न जानने से, मेरा इतना अपमान किया गया। बहुत आसानी से समझ आनेवाले शब्दों के लिए, तरह-तरह के अर्थ का अनुमान करते हुए, इतने दिन तक मैं अँधा बना था। अब से मैं भगवान की शरण में ही रहकर उनकी प्रार्थना में ही दिन काटता रहूँगा तो, वे ही मेरी जरूरतों की देखभाल यथा समय पर करेंगे।
यह खबर सुनते ही, राजा स्वयं उठकर पैदल ही चलकर पंडितजी के घर पहुँचे। उनके पैरों पर गिरकर प्रणाम किया। राजा ने आनंद विभोर होकर उनसे उत्साह की भावना से कहा- “कल तरह-तरह के विवरण दिए हुए उस श्लोक को आज आपने अपने अनुभवपूर्ण आधार पर उपयुक्त विवरण दिया है, इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी हूँ”।
राजा ने पंडितजी को इस तरह समझा दिया कि आध्यात्मिक संदेशों को अनुभवपूर्व प्रदर्शित किये बगैर, सिर्फ कोरे आडम्बर– प्रचार से प्रदर्शित करना तो, ढोंगी भाषण और कुशल अभिनय जैसा ही प्रतीत होगा।
प्रश्न:
- यह श्लोक किस ग्रन्थ का है?
- इस श्लोक का अर्थ क्या है?
- राजा, पंडितजी के विश्लेषण से संतुष्ट क्यों नहीं हुए?
- अंत मे राजा किस बात से सन्तुष्ट हुए?