बेचैन युवा
नरेन बड़ा होकर एक हष्ट-पुष्ट युवा बन गया; वे एक एथलीट, एक गूंजती आवाज तथा शानदार और बहुत तेज बुद्धि के धनी थे। उन्होंने एथलेटिक्स, दर्शनशास्त्र और संगीत में खुद को प्रतिष्ठित किया एवं अपने दोस्तों व सहपाठियों के बीच निर्विवाद नेता बन गए। कॉलेज में, उन्होंने पश्चिमी विचारों का अध्ययन किया और उन्हें आत्मसात किया, जिससे उनके मन में आलोचनात्मक दृष्टि उत्पन्न हुई। एक तरफ आध्यात्मिकता के प्रति उनकी जन्मजात प्रवृत्ति तथा प्राचीन धार्मिक परंपराओं एवं मान्यताओं के प्रति उनका सम्मान और दूसरी तरफ उनकी तर्कसंगत मानसिकता जो हर चीज के लिए एक दृश्य और ठोस प्रमाण की मांँग करती है, ने उनके मन में कुछ द्वंद्व पैदा कर दिया। इस प्रकार इस बेचैन अवस्था से गुजरते समय, ब्रह्म समाज उनके लिए कुछ आकर्षण का केंद्र था। ब्रह्मवाद उस समय का लोकप्रिय सामाजिक-धार्मिक आंदोलन था। यह निराकार ईश्वर में विश्वास करता था, मूर्तियों की पूजा का तिरस्कार करता था और विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारों के लिए प्रयासरत था। उस समय कई प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी इस आंदोलन के अनुयायी और नायक बन गए।
विवेकानन्द ने भी ब्रह्मवाद को गंभीरता से समझने की कोशिश की, लेकिन जितना अधिक वे इसमें गहराई से उतरे, उतना ही उन्हें महसूस हुआ कि जैसे इसमें कुछ कमी है। वह चीजों को ठीक से समझने के लिए पूरी गंभीरता तथा ईमानदारी से बुजुर्गों से सवाल पूछते थे, लेकिन उनमें से कोई भी उनके सवालों का ठोस और संतोषजनक जवाब नहीं दे पाता था, खासकर ईश्वर के अस्तित्व के बारे में। इससे उनकी आध्यात्मिक बेचैनी और बढ़ती गई।
इस समय, उन्हें अपने एक व्याख्यान के दौरान वर्ड्सवर्थ की कविता, एक्सकर्सन पर अपने प्रोफेसर विलियम हेस्टी के शब्द याद आए, जिसमें कवि के आनंदमय अनुभव का वर्णन किया गया था। प्रोफ़ेसर हेस्टी ने कहा था, “ऐसा अनुभव मन की पवित्रता और किसी विशेष वस्तु पर एकाग्रता का परिणाम है और यह वास्तव में दुर्लभ है, विशेष रूप से इन दिनों में। मैंने केवल एक ही व्यक्ति को देखा है जिसने मन की उस धन्य स्थिति का अनुभव किया है, और वह है दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण परमहंस, आप भी वहाँ जाकर स्वयं समझ सकते हैं।” वास्तव में ये झकझोरने वाले शब्द थे!
परमहंस श्री रामकृष्ण के साथ उनका मिलन तथा उनके अधीन उनका शिष्यत्व
समय-समय पर कुछ खास व्यक्तियों की मुलाकात अंततः सामने आती है और अनंत काल तक खिंच जाती है। उदाहरण के लिए, हनुमान की श्री राम से प्रथम भेंट। हालाँकि वे एक-दूसरे के लिए बिल्कुल अनजान थे, तथापि इस भेंट ने उन्हें आने वाले समय के लिए एक साथ अविभाज्य रूप से बांध दिया। हनुमान के नाम का उल्लेख राम के नाम के बिना नहीं किया जा सकता और न ही श्रीराम का हनुमान के बिना। इसी प्रकार श्री रामकृष्ण और विवेकानन्द की मुलाकात भी भारत की आध्यात्मिक नियति के लिए अद्वितीय महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इसने न केवल विवेकानन्द के जीवन की पूरी दिशा बदल दी, बल्कि हिंदू धर्म के इतिहास में एक नया अध्याय खोला और उसका पुनर्जागरण किया। साल 1881 में आधुनिक भारत के पैगम्बर और उनके संदेश – वाहक के बीच यह ऐतिहासिक मुलाकात हुई थी।
जैसे ही वे मिले, नरेंद्रनाथ ने सीधे श्री रामकृष्ण से यह प्रश्न पूछा, “सर, क्या आपने भगवान को देखा है?” यह वही सवाल था जो उन्होंने पहले कई अन्य लोकप्रिय धार्मिक नेताओं से पूछा था लेकिन हर बार उन्हें निराश होना पड़ा था। लेकिन अब तुरन्त श्री रामकृष्ण का उत्तर आया। “हाँ, मैं उसे वैसे ही देखता हूँ जैसे मैं तुम्हें यहाँ देख रहा हूँ, बल्कि और भी अधिक तीव्रता से।” उन्होंने आगे कहा, “ईश्वर को महसूस किया जा सकता है और कोई भी उसे देख सकता है और उससे बात कर सकता है जैसा मैं आपके साथ कर रहा हूंँ। लेकिन ऐसा करने की परवाह किसे है? लोग अपनी पत्नियों और बच्चों के लिए, धन या संपत्ति के लिए आंँसू बहाते हैं, लेकिन क्या कोई भगवान के लिए ऐसा करता है? यदि कोई उसके लिए ईमानदारी से रोता है, तो वह निश्चित रूप से स्वयं प्रकट होता है।” श्री रामकृष्ण के चेहरे की पारदर्शी ईमानदारी में, नरेंद्रनाथ को उनके शब्दों की पूर्ण सच्चाई का एहसास हुआ। आख़िरकार उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मिल गया जो उसे अपने अनुभव से आश्वस्त कर सकता था कि ईश्वर का अस्तित्व है, कि सभी धर्मग्रंथ काल्पनिक मनगढ़ंत बातें नहीं थे, बल्कि ईश्वर नामक शाश्वत और सार्वभौमिक सत्य के शुद्ध कथन और पुष्टि थे। अपने नियत गुरु के साथ इस मुलाकात में उनका संदेह पूरी तरह से दूर हो गया।
शिष्य का प्रशिक्षण सकारात्मक रूप में शुरू हुआ था। अपने दूसरे साक्षात्कार में, उन्हें संत की आध्यात्मिक शक्तियों का बहुत स्पष्ट अनुभव कराया गया। नरेंद्रनाथ ने उसी का उल्लेख किया जो वास्तव में घटित हुआ था।
“अपने आप से कुछ बुदबुदाते हुए, अपनी आँखें मुझ पर टिकाए हुए, वे धीरे-धीरे मेरे निकट आये। मुझे लगा कि वे कुछ अजीब व्यवहार कर सकते हैं। लेकिन पलक झपकते ही, उन्होंने अपना दाहिना पैर मेरे शरीर पर रख दिया। उनके इस स्पर्श ने तुरंत मेरे भीतर की ऊर्जा बढ़ा दी तथा मुझे एक अनोखा अनुभव हुआ। जब मैंने आँखें खोलीं, तो मैंने देखा कि कमरे की दीवारें और सब कुछ तेजी से घूम रहा था और शून्य में गायब हो गया था, एवं मेरे व्यक्तिगत रूप से पूरा ब्रह्मांड एक सर्वव्यापी रहस्यमय शून्य में विलीन होने वाला था! मैं बुरी तरह डर गया और सोचा कि मैं मौत का सामना कर रहा हूंँ, क्योंकि व्यक्तित्व के खोने का मतलब खुद को नियंत्रित करने में असमर्थ होना था। मैं चिल्लाया, आप मेरे साथ यह क्या कर रहे हैं, मेरे घर पर मेरे माता-पिता हैं। तब उन्होंने मेरी छाती पर प्रहार करते हुए कहा, ठीक है, अब इसे आराम करने दो। सब कुछ अपने समय पर आना होगा। आश्चर्य की बात यह थी कि जैसे ही उन्होंने यह कहा, मेरा वह अजीब अनुभव गायब हो गया। अब फिर से मैं ही था और कमरे के भीतर तथा बाहर, सब फिर पहले जैसा हो गया। यह सब मुझे बताने में लगने वाले समय से भी कम समय में हुआ, लेकिन इसने मेरे दिमाग में क्रांति ला दी।”
यह वह रहस्यमय स्पर्श था जिसने अंततः लगभग अज्ञेयवादी नरेंद्रनाथ को स्वामी विवेकानंद में बदल दिया, जो विश्व प्रसिद्ध भिक्षु थे, जिन्होंने 40 वें वर्ष में प्रारंभिक मृत्यु से पहले पूर्व और पश्चिम में लाखों दिलों में धर्म की गहरी ज्वाला जला दी थी।
अपने पांँच या छह साल के शिष्यत्व के दौरान, नरेंद्रनाथ प्रति सप्ताह एक या दो बार अपने गुरु से मिलते थे और अक्सर कुछ दिनों के लिए उनके साथ रहते थे। और सप्ताह-दर-सप्ताह उनकी रोशनी बढ़ती गई, जब तक कि उनके स्वामी ने उसे अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में देखना शुरू नहीं कर दिया। शुरुआती दौर में नरेंद्र ने गुरु के कई विचारों का उपहास किया क्योंकि वे ब्रह्म समाज की शिक्षाओं से बहुत अलग थे, जिसके वे उस समय सदस्य थे। लेकिन उन्होंने पाया कि यहाँ एक व्यक्ति है, वह जो भी बात करता है उसका अचूक प्रमाण स्वयं है। नरेंद्रनाथ को एहसास हुआ कि उन्हें खुद को उस बौद्धिक स्तर से स्थानांतरित करना होगा जिसके वह आदी थे, एक विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में आध्यात्मिक स्तर पर, जिसमें की गुरू रहते थे और चले गए थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेंद्रनाथ का पश्चिमी दर्शन का ज्ञान, बाद के वर्षों में वेदांत की व्याख्या करने में बहुत काम आया। लेकिन सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, उन्होंने महसूस किया कि उन्हें आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करना होगा, वेदांत जिसकी, मात्र एक बौद्धिक व्याख्या है। और इस अनुभव की झलक स्वयं गुरू ने उन्हें दी। लेकिन इसे तब तक विकसित करने की जिम्मेदारी उन पर थी जब तक कि यह पूरी तरह से उनका अपना न हो जाए।
नरेंद्रनाथ के पिता का अचानक निधन हो गया और परिवार हिल गया। हालाँकि उनके पिता अच्छी कमाई कर रहे थे, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात् परिवार लगभग दरिद्र हो गया और यहाँ तक कि परिवार का भरण-पोषण भी मुश्किल हो गया। नरेन लगभग भूख से मर रहा था, अक्सर अपनी भूख की पीड़ा छुपाता था और माँ से झूठ बोलता था कि उसने किसी दोस्त के घर पर खाना खा लिया है। ताकि घर के अन्य लोग उसके हिस्से के कुछ और निवाले खा सकें तथा अपनी भूख को थोड़ा और शांत कर सकें।
एक-दो बार नरेन्द्र ने परिवार के संकट निवारण हेतु दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली से प्रार्थना करने का प्रयास किया; इसका अनुमोदन स्वयं गुरु ने भी किया था। लेकिन उसने पाया कि हालाँकि रसोई में भोजन की व्यवस्था भी लिए उसके पास पैसे की बहुत कमी थी, फिर भी, माँ के सामने खड़े होकर, वह माँ से सांसारिक धन नहीं माँग सकता था। जब उससे माँगने की बात आती तो वह केवल ज्ञान और भक्ति के लिए प्रार्थना कर सकता था।
नरेंद्रनाथ के गुरु के प्रति समर्पण ने उन्हें आध्यात्मिक रूप से संदेह से निश्चितता की ओर उन्मुख कर दिया; उनका अहंकार नष्ट हो गया था और वह पूरी तरह से नरम हो गये थे, गुरु के प्रेम ने उन्हें पूर्ण रूपेण जीत लिया था, जिसका उन्होंने भी पूरी तरह से प्रतिदान किया था।
श्री रामकृष्ण की बीमारी और इलाज के लिए कलकत्ता के बाहरी इलाके काशीपुर में ले जाने के साथ, नरेंद्रनाथ का गुरु के अधीन अंतिम प्रशिक्षण शुरू हुआ। यह उस तीव्र आध्यात्मिक अग्नि के लिए उल्लेखनीय समय था जो नरेन के हृदय में जल रही थी और जिसने स्वयं को विभिन्न गहन अभ्यासों के माध्यम से व्यक्त किया था। श्री रामकृष्ण ने इस अवसर का उपयोग अपने अन्य युवा शिष्यों को भी नरेंद्र के नेतृत्व में लाने के लिए किया। और जब नरेंद्र ने प्रार्थना की कि उन्हें निर्विकल्प समाधि का आशीर्वाद मिले, जिसे सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभव माना जाता है, तो गुरु ने गुस्से में उन्हें चेतावनी देते हुए कहा, “तुम्हें शर्म आनी चाहिए! मैंने सोचा था कि तुम हजारों लोगों को आश्रय देने वाले एक विशाल वटवृक्ष की तरह विकसित हो जाओगे।” लेकिन अब, मैं देख रहा हूँ कि आप अपनी मुक्ति की तलाश कर रहे हैं।” फिर भी उन्होंने स्वीकार किया कि नरेंद्र को बहुत वांछित अहसास था, जिसके बाद मास्टर ने कहा कि ”इसके बाद की कुंजी यहीं रहेगी। उनकी (श्री रामकृष्ण की) रखवाली और “दरवाजा” तब तक नहीं खोला जाएगा जब तक कि नरेंद्र उस कार्य को पूरा नहीं कर लेते। अपनी समाधि से तीन या चार दिन पहले रामकृष्ण ने अपनी सारी शक्ति नरेंद्र को हस्तांतरित की और उनसे कहा,” मेरे द्वारा प्रसारित शक्ति के बल से तुम्हारे द्वारा महान कार्य किये जायेंगे; उसके बाद ही तुम वहीं वापस जाओगे जहांँ से आये हो।
वैयक्तिकता के कारागार से सार्वभौमिकता की स्वतंत्रता की ओर संन्यास लेना
16 अगस्त, 1886 को गुरु के निधन के बाद, नरेंद्रनाथ के नेतृत्व में कई युवा शिष्य उत्तरी कलकत्ता के बारानगर में एक पुराने जीर्ण-शीर्ण घर में एकत्र हुए, जहाँ आध्यात्मिक अभ्यास करते हुए और गहन तपस्या के बीच श्री रामकृष्ण भाईचारे की नींव रखी गई। इन्हीं दिनों नरेंद्रनाथ अपने कई भाई शिष्यों के साथ अंतपुर गए और वहां क्रिसमस की पूर्व संध्या (1886) को खुले प्रांगण में एक विशाल अग्नि के चारों ओर बैठकर संन्यास का व्रत लिया। उन्होंने भिक्षुओं के लिए उपयुक्त नए नाम भी अपनाए जहांँ नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद के रूप में उभरे।
उनकी साधना 1890 तक जारी रही, विवेकानन्द ने अपने साथियों के दल को उनके शक्तिशाली कार्य के लिए तैयार किया ताकि उनमें से प्रत्येक, दुनिया में जाकर श्री रामकृष्ण का संदेश फैला सके। इस अवधि के दौरान, वे भ्रमणशील भिक्षुओं के रूप में कुछ समय के लिए आस-पास के स्थानों पर भी जाते थे।