जन्म तथा बाल्यकाल
जन्म तथा बाल्यकाल
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समय बीतने के साथ -साथ, ईश्वराम्बा के मन में, एक और पुत्र-प्राप्ति की इच्छा हुई। उनको यह विश्वास था, कि उनकी यह इच्छा, सत्यनारायण भगवान की पूजा करने से पूर्ण होगी।
गाँव में अक्सर, पौराणिक कथाओं एवं महाकाव्यों पर आधारित, गीत नाटकों का आयोजन होता रहता था। कोंडम राजू और उनके दोनों पुत्र, इन आयोजनों में विशेष रुचि लेते थे, इसलिए अधिकतर उनके घर पर ही इन कार्यक्रमों का अभ्यास किया जाता था। यह अभ्यास करने के लिए उनके घर में एक बड़ा सा तानपूरा, दीवार पर टंगा हुआ था और उसी के नीचे फर्श पर मृदंग रखा हुआ था। जैसे-जैसे, बाबा के जन्म का समय निकट आता गया, परिवार में विचित्र घटना घटित होने लगी। पूरा परिवार, आधी रात को या ब्रह्ममुहूर्त में, तंबूरे और मृदंग पर बज रहे मधुर संगीत के स्वर सुनकर, जाग जाया करता था। ऐसा लगता था, मानों कोई महान कलाकार, बड़ी निपुणता से ये वाद्य यंत्र बजा रहा है।
इन रहस्यमयी घटनाओं का कारण जानने के लिए, पेद्दा वेंकप्पा राजू, बुक्कापट्टनम् में एक विद्वान शास्त्री से विचार विमर्श करने पहुँचे। शास्त्रीजी ने बताया, कि यह घटना किसी अलौकिक शक्ति की उपस्थिति का प्रमाण है, जो प्रेम, सुव्यवस्था, आनंद और आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करेगी।
वह 23 नवम्बर,1926 की सुहानी सुबह थी, जब माता ईश्वराम्बा ने भगवान बाबा को जन्म दिया। भगवान के जन्म के पूर्व, वो भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा ही कर रही थीं, कि उन्हें अनुभव हुआ कि शिशु के जन्म का समय आ गया है। शीघ्र ही लक्ष्म्मा को इसकी सूचना भेजी गई, वे भी पुजारी के घर सत्यनारायण की पूजा करने के लिए गई हुईं थीं। उन्हें भगवान सत्यनारायण की कृपा पर पूरा-पूरा पूरा भरोसा था और अनुशासन प्रिय होने के कारण उन्होंने पूजा में विघ्न डालना उचित नहीं समझा। वे पूजा समाप्त होने पर, प्रसाद के फूल और भगवान के अभिषेक का जल लेकर घर लौटीं। माता ईश्वराम्बा ने, वे फूल अपने बालों में लगाए और तीर्थग्रहण किया। तत्पश्चात्, कुछ ही क्षणों में भगवान बाबा का अवतरण हुआ।
वह कार्तिक मास का सोमवार था। इसलिए पुट्टपर्ती के निवासी, भक्तिभाव से, भगवान शिव का पूजन कर रहे थे और उनके पवित्र नामों का भजन कर रहे थे। आर्द्रा नक्षत्र के उदित होने के कारण, वह दिन और भी अधिक शुभ था और वह अक्षय वर्ष था। ऐसा बहुत कम होता था, कि वर्ष, माह, दिन और नक्षत्रों का ऐसा शुभ मिलन हो, अतः मंदिरों में विशेष पूजन का आयोजन किया गया था और इस शुभ घड़ी में भगवान श्री सत्य साई बाबा ने जन्म लिया।
वह नवजात शिशु अति सुंदर था। जन्म से ही, सारी दिव्य शक्तियों से सम्पन्न था। हमारे ग्रंथ कहते हैं कि, अवतार, दिव्य-चमत्कारी शक्तियों से सम्पन्न होता है, जिन्हें वह समय आने पर प्रकट करता है।
कमरे के एक कोने में, एक चटाई पर, सुंदर मुलायम बिछौने पर दिव्य शक्तियों से पूर्ण, कलियुग अवतार के नवजात शिशु को सुलाया गया। एकाएक, वहाँ उपस्थित एक महिला ने देखा, कि वह बिछौना धीरे-धीरे ऊपर नीचे हो रहा है। वहाँ उपस्थित सभी महिलाएँ, हतप्रभ हो कुछ क्षणों तक यह अद्भुत दृश्य देखतीं रहीं। फिर उन्होंने साहस करके, शीघ्रतापूर्वक शिशु को उठा लिया। जब बिछौना उठाया गया, तो सभी आश्चर्यचकित थे, क्योंकि, एक नाग, बिस्तर के नीचे कुंडली मार कर बैठा था, मानों आदिशेष, नए पैदा हुए भगवान विष्णु के अवतार को शैया प्रदान कर रहे हों|
भगवान सत्यनारायण से प्रार्थना करने पर, उन्हीं की कृपा से, पुत्र प्राप्ति हुई थी, अतः शिशु का नाम सत्यनारायण रखा गया। जब नामकरण संस्कार के समय, यह नाम शिशु के कान में बोला गया, तो शिशु मुस्कुरा कर उठा, क्योंकि स्वयं सत्यनारायण ने ही तो अवतार लिया था और उन्हीं की प्रेरणा से, उनका नाम सत्यनारायण रखा गया। सत्य का अर्थ होता है, सत्य और नारायण का अर्थ है, मनुष्य रूप में ईश्वर। बाबा, मानव-जाति को सत्य का ही मार्ग दिखाने के लिए आए हैं।वे मनुष्य को, अपने अंदर स्थित, ईश्वर की, अनुभूति करवाने के लिए आए हैं। इसलिए उनका नाम सत्यनारायण सर्वथा उपयुक्त है।
कोंडम राजू(दादाजी) ने अपने लिए, अपने परिवार के घर के पास ही, एक छोटी सी कुटिया बनाई थी, और वे, अकेले ही उसमें रहते थे। दादीजी, अक्सर शिशु सत्या को, श्री कोंडम राजू के पास ले जाती थीं। वे, नन्हे बालक को, अपने पूजा कक्ष में भी ले जाते थे। शिशु, उनकी पूजा में कभी भी विघ्न उपस्थित नहीं करता था। इसके विपरीत, उनका अनुभव यह था, कि, शिशु की उपस्थिति, उनके मन को शांति से भर देती है और उसे ईश्वर की तरफ मोड़ देती है।
शीघ्र ही नन्हा शिशु, पूरे गाँव का लाड़ला बन गया। उसकी मोहक मुस्कान, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी और सभी लोग उसे दुलारना चाहते थे। इसलिए पेद्दा वेंकप्पा राजू के घर में, नन्हे शिशु के झूले के चारों ओर, सदैव भीड़ लगी रहती थी। वे उसके मनमोहक रूप के दर्शन कर, अपने दु:ख-दर्द, थकान भूल जाते थे।
राजू परिवार के पड़ोस में करणम् परिवार रहता था, जो पीढ़ियों से गांव के साहूकार थे। वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनकी पत्नी सुब्बम्मा शिशु को हृदय से लगाकर पुचकारती और प्यार करती। शिशु भी उनकी गोद में आनंद से किलकारी मारने लगता। सुब्बम्मा, प्रफुल्ल हृदय से शिशु को अपने घर ले जाती। सुब्बम्मा एक अधेड़ (बड़ी उम्र की) महिला थी एवं नि:संतान थी, अत: सहृदय ईश्वराम्बा ने, उन्हें शिशु को कभी भी उनके घर ले जाने से नहीं रोका। नन्हा शिशु भी सदैव सुब्बम्मा के घर जाने के लिए तत्पर रहता था और उन्हीं के घर में अधिक प्रसन्नचित रहता था। उनके इस व्यवहार को देखकर गाँव की स्त्रियाँ अक्सर छेड़ा करतीं कि यह तो ब्राह्मण का बच्चा है। स्वाभाविक ही था कि गाँव की स्त्रियाँ ईश्वराम्बा को देवकी और सुब्बम्मा को यशोदा कहकर पुकारने लगीं। जैसे-जैसे यह दिव्य शिशु बड़ा होता गया, उसका माधुर्य बढ़ता गया। ईश्वराम्बा यह देखकर अति प्रसन्न होतीं कि उनका पुत्र पूरे गाँव के प्रेम का पात्र और आकर्षण का केन्द्र है। जैसे-जैसे नन्हे सत्या बड़े होते गए, सब यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि उन्हें माथे पर विभूति का बड़ा सा टीका लगाना अतिप्रिय था। यदि वह टीका किसी कारण मिट जाता तो वे जिद करके पुनः लगाना भी पसंद करते, और अक्सर कुमकुम पाने के लिए, बहनों की कुमकुम डिबिया उठा लाते थे। वे शिव और शक्ति का अवतार हैं, इसलिए शिव के समान विभूति और शक्ति के समान कुमकुम धारण कर आनंदित होते हैं।
माँसाहारी भोजन के प्रति उनकी अरुचि, उन्हें स्वाभाविक रूप से उन स्थानों से दूर ही रखती थी, जहाँ भेड़ बकरी, या अन्य पशुओं की हत्या होती थी, अथवा जहाँ पर पक्षी और मछलियाँ पकड़ी जातीं थीं। वे, उस रसोई से भी दूर रहते थे, जहाँ माँस पकाया जाता था, और उन बर्तनों का कभी भी उपयोग नहीं करते थे, जिनमें माँस पकाया जाता था। यदि उन्हें सूचना मिलती, कि, किसी पक्षी को मारा जाने वाला है, तो वे दौड़कर उस पक्षी को, हृदय से लगा लेते थे ,और बहुत प्यार करते थे। उसे पुचकारते, ताकि गाँव के बड़े लोगों को भी दया आ जाए, और वे उस पक्षी को, जीवनदान दे दें। जब भी घर में माँस पकाया जाता, तो वे, सुब्बम्मा के घर भाग कर चले जाते थे, क्योंकि वे शुद्ध शाकाहारी थे। उस दिन वे उन्हीं के घर भोजन किया करते थे।
समस्त सृष्टि के प्रति, उनमें असीम प्रेम देखकर पड़ोसी, उन्हें ब्रह्मज्ञानी कहकर पुकारने लगे।तीन-चार वर्ष की नन्हीं उम्र में भी, यह स्पष्ट हो गया था कि दीन दुखियों की पीड़ा देखकर, उनका हृदय द्रवित हो जाता था। यदि द्वार पर, कोई भिक्षुक पुकारता, तो वे दौड़कर भीतर जाते और अपनी बड़ी बहनों से जिद करते थे कि उसे भोजन दे दिया जाए। कभी-कभी बहनें, क्रोधित होकर माँगने वाले को भगा देतीं थीं, तो सत्या तब तक रोते रहते थे, जब तक उसे वापस बुलाकर, भोजन न दे दिया जाए। सत्या की इस आदत के कारण उनके घर भिखारी आते रहते थे। कभी-कभी, माँ उन्हें चेतावनी देतीं, कि “देखो, तुम भिखारियों को भोजन देने चाहते हो, तो दे दो, परंतु तुम्हें भोजन नहीं मिलेगा।” परंतु यह धमकी भी, उन्हें भयभीत नहीं कर पाती थी।
वे, फिर भी, भूखे व्यक्ति को भोजन दे ही देते थे और स्वयं भोजन ग्रहण नहीं करते थे। उस दिन, कोई भी, उन्हें भोजन करवाने में सफल नहीं हो पाता था। किन्तु,कोई रहस्यमय शक्ति, सत्या को भोजन खिला जाया करती थी। कई बार, वे, लगातार, कई दिनों तक भोजन ग्रहण नहीं करते थे, फिर भी भूख या थकान के, कोई भी लक्षण उनमें नजर नहीं आते थे। वे उतने ही क्रियाशील रहते थे।
जब माँ पूछतीं, तो वे उनसे कहते कि,”माँ मुझे एक वृद्ध व्यक्ति ने, दूध-भात खिला दिया है। देखो, मेरा हाथ सूँघो”, और आश्चर्य से जब माँ सूँघती, तो उनमें से दूध, घी और दही की सुगंध आती।
सत्या,जब कुछ बड़े हो गए और गाँव की गलियों में खेलने लगे तो वे अंधे, अपंग, रोगी और काम करने में अक्षम व्यक्तियों को, अपने घर ले आते। उनकी बहनों को, उनके कटोरे, भोजन या अनाज से भरना ही पड़ता था। तभी, नन्हें सत्या अति प्रसन्न होते थे।
गाँव के सभी माता-पिता, सत्यनारायण को, एक आदर्श बालक के रूप में स्वीकार करते थे, और शीघ्र ही, उनके हमउम्र मित्रों ने, उन्हें गुरू के रूप में स्वीकार कर लिया। इस बात का ज्ञान, उनके अपने परिवार के सदस्यों को, एक विचित्र घटना घटित होने पर ही हुआ। एक बार, श्री रामनवमी की मध्य रात्रि को, एक जुलूस, गाँव की सजी सड़कों पर, धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था।
एक फूलों से सजी बैलगाड़ी में, भगवान श्री राम का एक बड़ा सा चित्र रखा हुआ था। चित्र के बगल में, एक पुजारी बैठे, गाँव वालों द्वारा अर्पित हार, पुष्प, कपूर आदि एकत्र कर रहे थे।
जुलूस के साथ ढोलक और मुरली का मधुर संगीत मन्त्र-मुग्ध कर रहा था। इस संगीत को सुनकर, सत्या के परिवार के सदस्य भी जाग गए। परन्तु, सत्या घर पर नहीं थे। सभी व्यग्र और चिंतातुर थे कि, आधी रात को सत्या कहाँ चले गए हैं। उसी समय जुलूस एवं बैलगाड़ी ही, उनके घर के द्वार पर पहुँच गई। वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए, कि, पाँच वर्षीय सत्या, बड़े ठाठ से, चित्र के नीचे बैठे हुए हैं। उन्होंने, उनके मित्रों से पूछा कि, सत्या बैलगाड़ी में क्यों बैठे हैं, उनके साथ पैदल क्यों नहीं चल रहे हैं ? यह सुनकर, बच्चों ने उत्साहपूर्वक तुरंत उत्तर दिया, “ये हमारे गुरू हैं।” वास्तव में, वे तो विश्व के हर उम्र के प्रत्येक व्यक्ति के गुरू हैं।
पुट्टपर्ती गाँव में एक छोटी सी पाठशाला थी, जिसमें बाबा ने भी, अपने हम उम्र बच्चों के साथ पढ़ाई की। उस समय बच्चों को, समय की पाबंदी सिखाने के लिए एक कड़ा दंड दिया जाता था। शाला में पहले जो दो बच्चे, सबसे पहले पहुँचकर शिक्षक को नमस्कार कर देते थे, उन्हें छोड़कर प्रत्येक देर से आनेवाले बच्चों को, हथेली पर छड़ी से मारा जाता था। इससे, उनके कोमल हथेलियों पर घाव हो जाता था। बच्चों को गिनकर उतनी ही छड़ी मारी जाती थी, जो देर से आने वालों की सूची में, उनका स्थान होता था।
इस यातना से बचने के लिए, बच्चे सूर्योदय के पूर्व ही, वर्षा या कोहरे में भी ठिठुरते हुए शाला भवन के ओटले में एकत्र हो जाते थे। उनकी दयनीय दशा देखकर, नन्हें सत्या विचलित हो उठते। वे घर से कमीज़, तौलिया आदि ले आते, ताकि वे उन बच्चों को कुछ आराम दे सकें। अन्ततः, घर के बड़े लोगों ने कपड़े ताले में बन्द करके रखना शुरू कर दिया।क्योंकि उनकी भी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी, कि वे रोज -रोज नए कपड़े खरीद सकें।
सत्यनारायण, बहुत समझदार बालक थे। वे स्वयं अपने आप ही अपना पाठ याद कर लेते थे और वो भी अन्य बच्चों से बहुत जल्दी। घर में, गाँव के गीत-नाट्य और नाटकों में गाए जाने वाले, जिन गीतों का अभ्यास किया जाता था, वे सभी गीत सत्या बड़ी निपुणता से गा लेते थे। मात्र सात वर्ष की आयु में, उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए एक सुंदर गीत तैयार कर दिया था।
जब सत्या आठ वर्ष के ही थे कि, उन्हें बुक्कापटनम् के “हायर एलीमेन्टरी स्कूल” में प्रवेश लेने के लिए योग्य घोषित कर दिया गया। यह शाला पुट्टपर्ती से, लगभग ढाई मील दूर थी और उन्हें वहाँ पैदल ही जाना होता था। चिलचिलाती धूप हो या बरसात, पथरीला टीला हो या कीचड़ भरा मैदान, यहाँ तक कि, घुटनों तक भरे पानी में अपना बस्ता सर पर रखे, सत्या, पैदल ही शाला जाते थे। पौ फटते ही, बासी भात को दही या चटनी के साथ खाकर और दोपहर का भोजन एक डिब्बे में रखकर, नन्हें सत्या अपने अन्य मित्रों के साथ शाला जाने के लिए निकल पड़ते।
सरल,विनीत, ईमानदार, सदाचारी, आज्ञाकारी एवं मितभाषी सत्या, एक आदर्श विद्यार्थी थे। वे सबसे पहले कक्षा में पहुँच जाते, वहाँ भगवान का चित्र रखकर पूजा करते और सब बच्चों को भिन्न-भिन्न प्रसाद बाँटते। सत्या, अपने खाली झोले में से कई प्रकार की वस्तुएँ निकाल कर, अपने साथियों को दिया करते थे। शाला के सभी बच्चे, सत्या की दी हुई वस्तुएँ पाने के लिए, उनके चारों ओर एकत्र हो जाते। यदि उनके मित्र उनसे पूछते, कि सत्या ये सब वस्तुएँ कहाँ से आईं, तो वे उन्हें समझा देते कि, एक देवता मेरी बात मानते हैं। मैं उनसे जो भी माँगता हूँ, वे मुझे दे देते हैं।
एक दिन, एक शिक्षक को भी सत्या के, दैवत्व की अनुभूति हुई। वे कक्षा में कोई पाठ लिखा रहे थे, उन्होंने देखा कि सत्या पाठ नहीं लिख रहे हैं। वे कुछ गीत रचकर लिख रहे हैं, ताकि अपने सहपाठी में वे गीत बाँट सकें। जब शिक्षक ने उनसे प्रश्न किया, तो सत्या बोले, “सर आप जो भी पाठ लिखवा रहे हैं, वह मुझे समझ में आ गया है। आप इसमें से कोई भी प्रश्न पूछिए, मैं सही-सही उत्तर दूँगा”। परन्तु क्रोधित शिक्षक ने, उन्हें सजा देने की ठान ली। उन्होंने, सत्या को बेंच पर खड़ा होने का आदेश दिया और कहा कि आज शाला की छुट्टी होने तक ऐसे ही खड़े रहो। आज्ञाकारी सत्या, तुरंत बेंच पर खड़े हो गए, परन्तु उनके सहपाठी, अपने गुरू को इस प्रकार कष्ट पाते देखकर अत्यंत दुखी हुए।
उसी शाला में, अंग्रेजी विषय के एक शिक्षक थे – जनाब महबूब खान। वे सत्या से बेहद प्यार करते थे और उनका आदर करते थे। वे अंग्रेजी इतने अच्छे से पढ़ाते, कि प्रत्येक विद्यार्थी को अंग्रेजी के सारे पाठ कंठस्थ थे। सत्या, अपने आचरण से, जो भी आदर्श दूसरे विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करते थे, उसे देखकर खान साहब को पूरा विश्वास था, कि सत्या, दिव्य-शक्तियुक्त बालक है। इसलिए वे उनसे बहुत प्यार करते थे। वे सदैव सत्या को, भोजन करने के लिए अपने घर आमन्त्रित करते थे। उन्हें मालूम था कि सत्या को सामिष भोजन अप्रिय है, इसलिए वे भोजन पकाने से पूर्व, पूरा घर साफ करते थे। वे सत्या के पास बैठकर चुपचाप उसे निहारते रहते, फिर उनके बालों पर हाथ फेरते हुए कहते, “सत्या, आप तो अद्भुत बालक हैं। आप हजारों मनुष्यों का भला करेंगे। आप में महान दिव्य शक्ति है”।
उस दिन, अगला पीरियड उन्हीं का था। जब वे कक्षा के द्वार पर पहुँचे, तो अपने प्रिय विद्यार्थी को बेंच पर खड़ा देखकर बहुत दुःखी हुए। उन्होंने देखा कि सत्या को सजा देने वाले शिक्षक कुर्सी पर ही बैठे हुए हैं। वे कक्षा से बाहर जा ही नहीं पा रहे हैं।महबूब साहब को उन्होंने पास बुलाया और कान में फुसफुसा कर कहा, कि वे कुर्सी से चिपक गए हैं – जब उठते हैं तो कुर्सी भी उठ जाती है।बच्चों ने भी वह धीमी फुसफुसाहट सुन ली और चुपके-चुपके मुँह दबा कर हँसने लगे। उन्हें विश्वास था कि सत्या के देवता ने ही यह किया है। महबूब खान साहब को भी यही विश्वास था, इसलिए उन्होंने उन्हें सलाह दी, कि सत्या को बिठा दो। जैसे ही सत्या बेंच से नीचे उतरे, शिक्षक कुर्सी छोड़कर खड़े हो सके।
कई वर्ष पश्चात यह घटना सुनाते हुए बाबा बोले कि, “मैंने क्रोधित होकर ऐसा नहीं किया। यथार्थ में मेरे अंदर क्रोध है ही नहीं। मैं तो बस, अपनी दिव्यशक्ति की अनुभूति करवा कर, लोगों को अपने अवतार कार्य की घोषणा स्वीकार करने के लिए, मानसिक रूप से तैयार करना चाहता था।”
सब उन्हें ब्रह्मज्ञानी कहकर पुकारते थे। यह नाम सत्या को, उनके अलौकिक विवेक तथा दैवी विशेषताओं के कारण दिया गया। सत्या अपने साथियों को जो सिखाते थे, वैसा ही आचरण भी करते थे। उन्होंने सिखाया कि सांसारिक वस्तुएँ क्षणिक सुख ही दे पाती हैं। वे केवल पौराणिक सन्तों की कथाएँ सुनकर आनंदित होते थे, जिनमें ये सारे सद्गुण थे। उस छोटी उम्र में भी सत्या, उन्हीं मित्रों से मित्रता करते थे, जो साफ-सुथरे रहते और ईमानदार थे और वे केवल, ऐसे ही अच्छे बच्चों को अपने खाली झोले से निकली हुई मिठाइयाँ देते थे।
[Source: Lessons from the Divine Life of Young Sai, Sri Sathya Sai Balvikas Group I, Sri Sathya Sai Education in Human Values Trust, Compiled by: Smt. Roshan Fanibunda]