उत्तिष्ठोत्तिष्ठ

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उत्तिष्ठोत्तिष्ठ
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द्वितीय पद
  • उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पर्तीश, उत्तिष्ठ जगतीपते
  • उत्तिष्ठ करुणापूर्णा, लोक मंगल सिद्धये॥२॥
भावार्थ

जागो, जागो हे! पुट्टपर्ती के भगवान, समस्त संसार के स्वामी, जगन्नाथ जागिए। हे करुणामय साई जागो, जिससे संसार के साधारण जन भी मंगल को प्राप्त कर सकें।
(पुट्टपर्ती वह स्थान है जहाँ भगवान ने अवतार लिया है और वे अपने आलोक से सम्पूर्ण संसार को आलोकित कर रहे हैं।)

व्याख्या
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ जागिए, उठिए|
पर्तीश पुट्टपर्ती के भगवान
उत्तिष्ठ जगती पते हे संसार के स्वामी, उठिए|
उत्तिष्ठ करुणापूर्णा करुणा से पूर्ण, उठिए|
लोक मंगल सिद्धये लोगों के कल्याण के लिए संकल्प कीजिए|
आंतरिक महत्व

उत्तिष्ठ+ उत्तिष्ठ- उठिए, हे मेरे आत्मानिवासी उठिए और मेरा कार्यभार संभालिए। जैसे आपने सर्पों की बाम्बियों वाले उजाड़ पुट्टपर्ती ग्राम को कल्याणकारी और सुंदर क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया, उसे प्रशांति निलयम जैसे शांतिपूर्ण और प्रेरणादायक स्थान में बदल दिया। वैसे मुझे भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे सर्पों से मुक्ति दिलाइए, अपनी करुणा से मुझे आप्लावित कर दीजिए, जिससे मैं अपने अन्य साथियों के लिए कल्याणकारी कार्य कर सकूँ। (लोकमंगल सिद्धये)

जगतीपते – ज = जन्म, गती = मृत्यु, पते = ईश्वर जो जन्म और मृत्यु से भी ऊपर है, हमारी आत्मा |

व्याख्या : जब सद्गुरु हमें जगाते हैं, अज्ञान का अंधकार समाप्त हो जाता है और कल्याणकारी प्रभात वर्ग प्रारम्भ होता है। वे हमें दर्शन, स्पर्शन, सम्भाषण देकर विभिन्न प्रकार से जगाते हैं। हमें विभिन्न मार्ग से ले जाते हैं। उसकी कृपा से हमें अपने अंदर छिपे दिव्यत्व तक पहुँचने के लिए अपनी साधना प्रारम्भ कर देनी चाहिए।

आंतरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए प्रतिदिन सुप्रभातम् का पाठ करने से अवश्य ही हमें अपने दिव्य लक्ष्य साई आत्मा की प्राप्ति होगी।

जगाने की सुप्रभातम् में बहुत ही गूढ़ और सूक्ष्म महत्व है। जैसे कहानी में गुरुसेन ने राजा धीरज को उसके स्वयं के राज्य में छिपे खजाने को दिखाया वैसे ही हमारा गुरु हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि हम ईश्वर के पुत्र हैं। ईसा मसीह ने कहा था- “ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है।”

वास्तव में हमारे अंदर महान शक्ति एवं प्रतिभा छिपी हुई है, हमें अज्ञान के आवरण को ऊपर उठाना है। हमारे गुरु अपना प्रेम, सहानुभूति और मार्गदर्शन दे हमारा नेतृत्व करते हैं। वे कहते हैं, “मैं भगवान हूँ एवं तुम भी भगवान हो। विश्वास करो तुम एक कदम मेरी तरफ बढ़ाओगे तो मैं सौ कदम तुम्हारी तरफ बढ़ाऊँगा।”

हमें अपने अंदर छिपे षडरिपुओं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर से युद्ध करना होगा। हम जितना ज्यादा जागृत होंगे, चैतन्य होंगे, हमारे विचार उतने ही पवित्र होंगे। सात्विक विचार, मन की गहराइयों तक पहुँचते हैं और हमारी साधना को भी सुदृढ़ बनाते हैं।

हमारे अंत:करण में स्थित दिव्यात्मा जैसे ही जागृत होगी, हम यंत्रवत् कार्य करने के लिए तैयार हो जाएँगे। हम समाज के कल्याण के लिए सेवा कार्य अपनाएँगे। साथ ही भगवान के द्वारा बनाए गए सभी प्राणियों से, चाहे वे गरीब हों या निम्न हों, बीमार, कमजोर हों, वे एक समानता अनुभव करेंगे। किसी से भेदभाव नहीं रखेंगे, क्योंकि सभी ईश्वर की संतान हैं।

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