त्वन्नामकीर्तन

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त्वन्नामकीर्तन

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चतुर्थ पद
  • त्वन्नामकीर्तन रतास्तव दिव्य नाम
  • गायन्ति भक्ति रसपान प्रहृष्टचित्ताः
  • दातुम कृपा सहितदर्शनमाशु तेभ्यः
  • श्री सत्य साई भगवन् तव सुप्रभातम ॥४॥
भावार्थ

भगवन आपके भक्त, प्रेम और भक्ति रस का आनंद चखते हुए जोर-जोर से आपका नाम संकीर्तन कर रहे हैं। उनका हृदय आनंदमग्न हो रहा है। आप उन्हें शीघ्र ही अपने दर्शनों से कृतार्थ कीजिए। भगवन, हम मंगलमय प्रभात के लिए आपसे प्रार्थना करते हैं। यह शुभ प्रभात भक्तों के लिए कल्याणकारी हो।

व्याख्या
त्वन्नाम तव नाम – तुम्हारा नाम
कीर्तन गायन
रतास्तव पूरी तरह से लीन होना
दिव्य नाम दैवी नाम
गायन्ति गायन कर रहे हैं
भक्ति रस भक्ति का अमृत
प्रहृष्टचित्ताः आनंद से भरा हुआ हृदय चित्त
दातुम देना
कृपा सहित कृपा के सहित
दर्शनम् दर्शन
आशु शीघ्र
तेभ्यः उन्हें
आंतरिक महत्व

इस पद में नाम संकीर्तन का महत्व बतलाया गया है जो साधना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। सामूहिक रूप से भाव, राग और ताल को ध्यान में रखते हुए भगवान की महिमा का भक्तिपूर्वक गायन, भजन या नाम संकीर्तन करने से भक्ति में और अधिक माधुर्य बढ़ जाता है। हमारे हृदय में सुप्त पड़े हुए महान गुण भगवान के नाम स्मरण से अंकुरित होकर हृदय में पूर्ण विकसित होते हैं। इस बात की अनुभूति इस पद में कराई गई है।

जब हमारे हृदय में भक्ति भाव अत्यधिक प्रबल हो जाता है तो हम साई कृपा, साई राम या अन्य नामों का गुणगान, उनकी लीलाओं का गायन जोर-जोर से करने लगते हैं।

नाम संकीर्तन साधना का सबसे सरल रूप है। सामूहिक रूप से भजन गाने से हृदय में पवित्र तरंगे उत्पन्न होती हैं जिससे आनंद की प्राप्ति होती हैं। नाम संकीर्तन हमें हमारे गुरु के बिलकुल समीप ले जाता है।

पिछले पदों में हमने जागृति का अनुभव किया। ज्ञान का सूर्य उदय हुआ। गुरु के प्रेमपूर्ण स्पर्श से हमारे अज्ञान की कुछ पर्ते दूर हुई और हमारे लिए साधना का द्वार खुला।

इस पद में हमारी आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ भजन और भगवान के नाम संकीर्तन की साधना से होता है। अब हम अपना ध्यान स्थूल शरीर की ओर ले जाते हैं। स्थूल शरीर से प्राणमय कोष की ओर प्रस्थान करते हैं। नाम संकीर्तन के द्वारा हमारी श्वास धीमी, लयबद्ध और नियमित होती है।

कहानी
1. नामदेव और ज्ञानदेव

एक बार नामदेव और ज्ञानदेव नामक दो मित्र किसी जंगल के रास्ते से जा रहे थे। वे दोनों बहुत थक गए थे और प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था। चलते-चलते थोड़ी दूरी पर उन्हें एक कुआँ दिखाई दिया परंतु उसमें पानी बहुत कम था। कुआँ बहुत गहरा था। प्रश्न यह उठा कि पानी कैसे प्राप्त किया जाए?

ज्ञानदेव ज्ञानी था। उसमें योग शक्ति थी, ज्ञान शक्ति थी। उसने योग शक्ति से अपने आप को एक चिड़िया में परिवर्तित कर लिया और उड़कर कुएँ की तली में पहुँच गया और पानी के पास पहुँच कर पानी पिया और अपनी प्यास बुझा ली।

नामदेव के पास ऐसी कोई यौगिक शक्ति नहीं थी परंतु वह भगवान का परम भक्त था। वह यद्यपि प्यास से व्याकुल था फिर भी उसका मन ईश्वर को स्मरण कर रहा था। वह भगवान के नाम स्मरण में तल्लीन था। आनंदमग्न होकर भगवान के प्रेम के माधुर्य का रसपान कर रहा था।

इतने में ही कुएँ के तल से पानी ऊपर की और उठना प्रारम्भ हुआ और लबालब भरता हुआ पानी बाहर तक बहने लगा। तब नामदेव को बिना किसी प्रयत्न के पानी प्राप्त हो गया, जिसे पीकर उसने अपनी प्यास बुझाई। ज्ञानी को अपनी स्वयं की शक्ति पर विश्वास था परंतु भक्त के पास पानी स्वयं बहकर आ गया। भगवान का नाम महान शक्तिशाली है। अपने भक्त की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भगवान स्वयं अपने भक्त के द्वार तक पहँचता है।

2. भ्रमर और कुमिर

जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है।

एक दिन एक भ्रमर ने कुमिर नामक कीट को पकड़कर मिट्टी के घरौंदे में बंद कर दिया, जिसमें एक सँकरा सुराख था। भ्रमर हर समय घरौंदे के चारों तरफ मँडराता रहता और बाद में उसी सुराख के पास बैठ जाता, वह हमेशा भन-भन, भन – भन करता रहता। कुमिर कीट को भय था कि भ्रमर किसी भी क्षण उसे मार सकता है, नष्ट कर सकता है इसलिए बिना ध्यान हटाए, बिना दृष्टि हटाए वह भ्रमर को ही देखता रहता और उसी के बारे में सोचता रहता। परिणामस्वरूप केवल भ्रमर पर ही ध्यान केंद्रित रहने के कारण कीट (कुमिर) भी भ्रमर में परिवर्तित हो गया, उसका कुरूप दिखने वाला कीट का शरीर सुंदर भ्रमर में रूपांतरित हो गया।

इसी तरह आत्मा या ब्रह्म पर ध्यान केन्द्रित करने पर जीव भी अपनी मर्यादा से मुक्त हो जाता है। व्यक्तिगत अहंभाव से मुक्त होकर विश्वभावना में परिवर्तित हो जाता है। जीव का सम्बन्ध केवल शरीर से ही नहीं विश्व के साथ हो जाता है। जीवात्मा, विश्वात्मा में परिवर्तित हो जाती है। मन और इन्द्रियाँ संकुचित दृष्टिकोण रखने के स्थान पर आध्यात्मिक अर्थात् सबमें आत्मा के दर्शन करने वाली बन जाती है। उनमें नवचेतना जागृत होती है। उसकी अंतर्निहित आत्मा मन, वचन और कर्म में पूरी तरह प्रकाशित होती है। अर्थात् मन, वचन और कर्म में दिव्यता झलकने लगती है। यही आत्मा का पुष्पित होना है, खिलना है, विकास होना है। शरीर, मन और आत्मा का एकीकृत व्यक्तित्व है मनुष्य दिव्यता को प्राप्त करता है जैसा कि बाबा कहते हैं कि मानव माधव में परिवर्तित हो जाता है।

3. द्रौपदी की भगवान कृष्ण के प्रति अगाध भक्ति

द्रौपदी को भगवान कृष्ण की असीम कृपा प्राप्त थी जिसे देखकर रुक्मिणी और सत्यभामा को बड़ा आश्चर्य होता था।

एक दिन कृष्ण ने उन दोनों से द्रौपदी के बालों में कंघी करने को कहा, क्योंकि भगवान उन्हें अपनी कृपा का कारण समझाना चाहते थे। चूँकि द्रौपदी ने यह कसम खाई थी कि जब तक कौरवों को उनके किए की सजा नहीं मिलेगी और जब तक कौरवों से अपने अपमान का बदला नहीं ले लेगी, तब तक बाल नहीं गूंथेगी।

जब दोनों रानियाँ, रुक्मिणी और सत्यभामा, द्रौपदी के बालों में कंघी कर रही थीं तो उन्हें हर बाल से कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण की ध्वनि सुनाई दे रही थी। तब उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और समझ में आया कि द्रौपदी भगवान की अनन्य भक्त थी।

यह भी कहा जाता है कि हनुमान के रोम-रोम (शरीर के बाल) से राम, राम सुनाई देता था।

इसी तरह हमारे प्रिय भगवान श्री साई सर्वदा सर्वकाल में, हर स्थान पर स्मरण किए जाते हैं।

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