भगवद्गीता में अठारह अध्याय हैं। हर अध्याय के शीर्षक में ‘योग’ जुड़ा है जिसका अर्थ है- परमात्मा से मिलना और ईश्वर को पाने का मार्ग। गीता का प्रत्येक अध्याय, मानवमात्र के कल्याण के लिए पूर्णता की ओर जाने वाला मार्ग है। गीता संपूर्ण विश्व का धर्मशास्त्र है। प्रत्येक धर्म को मानने वालों के लिए उनकी अपनी-अपनी नैतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक अवस्था के अनुसार संदेश देकर गीता सभी की आवश्यकता की पूर्ति करती है। गीता काल के ऐतिहासिक महाभारत युद्ध के समान हमारे हृदय में भी अच्छे और बुरे, सद् और असद् विचारों के बीच सतत् संघर्ष चलता रहता है। गीता में स्वयं जगत पिता साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण सत् पथ पर श्रद्धा विश्वास तथा उनके प्रति समर्पण के साथ चलने का उपदेश देते हैं। वे अपने कर्तव्यों का पालन अनुशासनबद्ध होकर निष्ठापूर्वक निष्काम भाव से करने का उपदेश देते हैं और समझाते है कि प्रत्येक जीव के साथ एकात्मकता अर्थात् समस्त जीवन और सृष्टि की एकता की अनुभूति करो। अनेकत्व में एकत्व तथा समस्त दृश्य प्रपंच के जीवन में परमात्मा का दर्शन करो। महाभारत युद्ध में एक-दूसरे विरुद्ध खड़े कौरव असत्य के एवं पांडव सत्य के प्रतीक थे। इसी तरह हमारे मन में निरंतर आसुरी और दैवी प्रवृत्तियों के बीच युद्ध चलता रहता है।
कौरवों के पिता राजा धृतराष्ट्र जो नेत्रहीन होने के साथ-साथ आत्मिक दृष्टि से भी अंधे थे, सदा असद् चिन्तन में लगे रहते थे। वे मोहवश अपने कुपथगामी पुत्रों का अंधानुकरण करते थे। स्वजातीय और विजातीय भेद से मोह ग्रस्त होने पर राजा के लिए जो उचित न्याय दृष्टि अभीष्ट होती है उसके प्रति भी धृतराष्ट्र अंधे हो गए थे। उन्होंने संजय से पूछा ‘मेरे और पांडु पुत्र (मामकाः पाण्डवाश्चैव) युद्ध में क्या कर रहे हैं?’ तब संजय ने राजा को अर्जुन के ठीक युद्ध के समय हुए विषाद और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता के विषय में बताया।
उस कठिन समय में, जब युद्ध प्रारंभ होने ही वाला था, स्वजनों तथा बड़ों को अपने विपक्ष में देखकर तथा युद्ध के भयानक परिणाम का विचार करने पर अर्जुन शोक ग्रस्त होकर इसी सोच में पड़ गए कि केवल सांसारिक राज्य की प्राप्ति के लिए ही क्या वह अपने स्वजनों से युद्ध करने या उन्हें मारने जा रहे हैं? क्या वह अपने पूज्य पितामह भीष्म से, युद्ध करेंगे जिन्होंने पिता की मृत्यु के बाद अपनी गोद में उन्हें पाल पोसकर बड़ा किया और मनुष्य बनाया है? क्या वह अपने पूज्य गुरुदेव द्रोणाचार्य से युद्ध करें, जिन्होंने पुत्र से बढ़कर प्रेम देकर उन्हें धनुर्विद्या में अग्रणी बनाया है? क्या जो कौशल आचार्य से सीखा है उसका वह उन्हीं के विरुद्ध प्रयोग करेंगे? इस तरह के विचार अचानक उनके हृदय में पूरी तरह से छा गये। परिवार और आचार्य के प्रति लगाव ने उन्हें क्षत्रिय धर्म के कर्त्तव्य से विमुख कर दिया। धर्म का पालन करना क्षत्रिय के लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान होता है। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें ? उस दशा में वह भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की शरण में जाकर उनसे मार्गदर्शन की याचना करते हैं। भगवान ने उन्हें कर्त्तव्य कर्म की प्रधानता को समझाकर निर्लिप्त भाव से सत्य का आश्रय लेकर कार्य पूरा करने के लिए कहा। भगवान के उपदेशों से अर्जुन को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनके शरीर और मन में नवचेतना तथा स्फूर्ति आई। भगवान के उपदेशों के फलस्वरूप अर्जुन, कर्त्तव्य कर्म को निष्ठापूर्वक ‘योग’ मानकर पूरा करने के लिए तैयार हो गए। भगवान द्वारा अर्जुन को प्रदत्त यह संदेश समस्त मनुष्यों के लिए सार्वभौमिक और सर्वकालिक है। महाभारत के महान रचयिता महर्षि वेदव्यास के द्वारा लिखा गया यह उपदेश श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से लिखा गया । गीता में 18 अध्याय तथा 700 श्लोक हैं और यह उपनिषदों की शिक्षा का सार है।