प्रमुख धर्मों में समानताएँ
धर्म का अर्थ है अलौकिक, दैवी, उस परमसत्ता पर विश्वास करने वाला मत (दर्शन) जो इस ब्रह्माण्ड का मालिक है और जिसे हम परमात्मा कहकर पुकारते हैं। इस ब्रह्माण्ड की रचना करने वाला और इसका विधाता एक अलौकिक, दिव्य, परम सत्ता है जिसे हम सब परमात्मा या ईश्वर के नाम से पुकारते हैं। परमात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करनेवाले दर्शन को धर्म कहते है। श्रद्धा ही हमें हमारे रचयिता से जोड़ती है। Religion यह शब्द Religare से बना है। Religare का अर्थ है ‘अपने स्त्रोत से पुनर्मिलन’ और हमारा स्त्रोत स्वयं ईश्वर है। जिस प्रकार एक शिशु स्वाभावत: माँ की ओर आकर्षित होता है उसी प्रकार मनुष्य का ईश्वर के प्रति आकर्षण भी स्वाभाविक ही है। मनुष्य को अपने जीवन में कभी न कभी भगवान की दया और उनके द्वारा प्रदत्त रक्षा की आवश्यकता महसूस होती है। मनुष्य बहुत अधिक समय तक अनास्थावादी नहीं रह सकता। एक बालक हो सकता है खेलकूद में मगन होकर कुछ देर के लिए अपनी माँ को भूल जाए परन्तु जब उसे भूख या प्यास लगती है या भयभीत होता है तो वह दौड़कर अपनी माँ की गोद में छुप जाता है। माँ का प्रेम ही उसे आशा, सुख व सुरक्षा देता है। उसी प्रकार ईश्वर की करुणा और प्रेम मनुष्य को आशा, सुख तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं । संसार के दुःखों से घिरकर जब मनुष्य असहाय महसूस करता है तब वह ईश्वर को ही याद करता है। आदि शंकराचार्य ने गीत लिखा है कि “हे अज्ञानी ! जब मृत्यु के देवता यमराज तुम्हारे पास आयेंगे उस समय संसार की कोई भी वस्तु तुम्हारी सहायता नहीं कर पाएगी। उस समय गोविन्द ही तुम्हारे सहायक होंगे। इसलिए गोविन्द की शरण में जाओ क्योंकि केवल वे ही तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ हैं।”
मनुष्य भला कब तक ईश्वर से दूर रह सकता है ? क्या प्रभु यीशु मसीह ने अपव्ययी पुत्र की कहानी नहीं सुनाई ? हमें अपने पिता की सुरक्षापूर्ण देखरेख में कभी न कभी लौटना ही होता है। ईश्वर के साथ ही हमारा बन्धन चिरस्थायी है, अन्य सभी रिश्ते झूठे, क्षणिक और भ्रामक हैं। श्री योगानन्द परमहंस ने अपनी आत्मकथा में एक चमत्कारपूर्ण घटना का वर्णन किया है। बचपन में ही उनकी माता का देहान्त हो गया। यदि वे उनके अन्तिम क्षणों मैं उनके पास होते तो भी उन्हें कुछ सांत्वना प्राप्त होती। परन्तु वे उनके पास नहीं थे। वे अपने पिता के पास बरेली में थे। यह घटना घटित होने के बाद ही वो कलकत्ता पहुँच पाए। बालक योगानन्द को सांत्वना देना असंभव था। तभी उन्हें माता काली ने दर्शन देकर सांत्वना और शान्ति दी। माता ने उनसे कहा, मैंने ही विभिन्न जन्मों में तुम्हें कई माताओं की कोमलता में पाला है – अब भी तुम मुझमें ही अपनी जननी को देखो।
ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिबिम्ब है, परन्तु जैसा स्वर्ग लुप्त हो गया (Paradise lost) में कहा गया है मनुष्य ने स्वयं को ईश्वर से विमुख कर लिया है। अब संभवत: ईश्वर का प्रतिबिम्ब हमारे भीतर है परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। जब तक हम उन्नति नहीं करते अपना आध्यात्मिक विकास नहीं करते हम खोया हुआ स्वर्ग पुनः प्राप्त नहीं कर सकते। हममें ईश्वर के यथार्थ स्वरूप की पहचान करवाना ही प्रत्येक धर्म का लक्ष्य है। शरीर, मन, स्वभाव, क्षमता, अभिरुचियों में भले ही हम सभी मनुष्य एक दूसरे से भिन्न हों परन्तु अन्तःकरण में आत्मिक स्तर पर हम सभी एक दूसरे के अनुरूप ही हैं, आत्मा ही हमारा यथार्थ स्वरूप है। हमारे अन्तकरण में केवल दिव्यत्व का ही अस्तित्व हैं जो ‘ईश्वर’ ही है, उस ईश्वर को हम अपनी रुचि के अनुसार भिन्न- भिन्न नामों से पुकार सकते हैं। परन्तु हमारे भीतर का दिव्यत्व माया से आच्छादित होने के कारण प्रसुप्त अवस्था में है। प्रत्येक धर्म यही शिक्षा देता है कि मनुष्य को अपना आध्यात्मिक विकास करके अपने अन्तःकरण में स्थित दिव्यत्व को प्रकट करना चाहिए। इस दिव्यत्व के प्रकट होते ही मनुष्य इस सत्य को पहचान लेगा कि “सभी मनुष्य आपस में भाई-भाई हैं और परमपिता परमेश्वर हम सबके पिता हैं और सभी जीवों तथा सम्पूर्ण सृष्टि में एकात्मकता है।” जब सभी मनुष्य इस सत्य की अनुभूति कर लेंगे तभी संसार में शान्ति और सामन्जस्य की स्थापना होगी। ऐसा होने पर ही हमें यह ज्ञान प्राप्त होगा कि “मनुष्यों की एक ही जाति है- वह है मानवता की और केवल एक ही धर्म का अस्तित्व है और वह धर्म है प्रेम।”
विभिन्न धर्म ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। इन सभी का लक्ष्य है ईश्वर से पुनः हमारा सम्बन्ध स्थापित करना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रत्येक धर्म ने कुछ अनुशासन निर्धारित किए हैं। ये अनुशासन हमारी इच्छाओं पर नियंत्रण कर एवं हमारे मनोवेगों और हमारी प्रवृत्तियों का शुद्धिकरण कर हमारी बुद्धि को ईश्वर के मार्ग पर लगाते हैं। ऐसा होने पर हम अपना और समाज दोनों का कल्याण कर पाते हैं। हमारा मन स्वार्थ, इच्छाओं, आसक्ति तथा महत्वकांक्षाओं आदि का उद्गम स्थान है। उसे शुद्ध बनाकर सही दिशा की ओर मोड़ना चाहिए। भगवान बाबा कहते हैं, “भारतीय भाषाओं में धर्म के लिए मत शब्द का प्रयोग किया जाता है और मन को मति कहा जाता है। इन दोनों शब्दों को एक साथ मिलाया जाए तो कहा जा सकता है कि जो मति अर्थात् मन को शक्ति दे और बुद्धि को प्रकाशित करे वही मत है।”
यद्यपि सभी धर्मों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है, फिर भी मानवीय इतिहास में कालान्तर से विभिन्न धर्मों का जन्म हुआ। कई धर्म अस्तित्व में आए तथा उन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिया गया। सभी धर्मों के संस्थापक ऐसे महान व्यक्ति थे जिन्होंने उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्राप्त की थी। परन्तु भौगोलिक परिस्थितियों-ऐतिहासिक आवश्यकताओं व उस समय के मनुष्यों की सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार प्रत्येक संस्थापक ने अपनी शिक्षाओं और अपने संदेश ऐसी भाषा में दिये कि वे उनके अनुयायियों को सरलतापूर्वक समझ में आ जाएंँ। अतः एक धर्म के संस्थापक ने एक सिद्धान्त विशेष या सिद्धान्तों को विशेष महत्व दिया जबकि दूसरे धर्म के संस्थापक ने किसी दूसरे ही सिद्धान्त को विशेष महत्व दिया। इसलिए बाह्य दृष्टि से सभी धर्म भिन्न-भिन्न अथवा कभी-कभी एक दूसरे के विरोधी भी दिखाई देते हैं। विशेष रूप से उनके समारोहों- उत्सवों की पद्धति में और उनकी पूजा पद्धति में कई विरोधाभास दिखाई देते हैं। परन्तु उनका गहन अध्ययन यह सिद्ध करता है कि सभी धर्मों में एक ही अन्तर्धारा प्रवाहित है और इन सभी धर्मों की शिक्षाओं का सार एक ही है। इतना ही नहीं सभी धर्मों का लक्ष्य भी एक ही है और वह लक्ष्य है सांसारिक वस्तुओं पर आत्मा की प्रभुता का ज्ञान प्राप्त करना एवं अपने आचरण में ऐसे परिवर्तन लाना जिससे आध्यात्मिक सत्य से साक्षात्कार हो सके। विभिन्न धर्म उसी एक सत्य को भिन्न-भिन्न रुपों में प्रस्तुत करते हैं। परन्तु ये सभी धर्म एक ही सत्य प्रतिपादित करते हैं एवं मनुष्य का आध्यात्मिक विकास कर उसे बहुर्मुखी पूर्णता देते हैं। हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक तेज, यहूदी धर्म का ईमानदारी से पूर्ण आज्ञापालन, बौद्ध धर्म की उदार करुणा, ईसाई धर्म का दिव्य प्रेम दर्शन तथा इस्लाम धर्म का प्रभु परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ये सभी, आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के ही भिन्न-भिन्न रुप हैं और साथ ही ये सब मनुष्य की अद्भुत अनुभूतियों का बुद्धिमत्तापूर्ण वर्णन है।
हिन्दूधर्म जो वैदिक ज्ञान पर आधारित है, आध्यात्मिक मूल्यों को विशेष महत्व देता है और शिक्षा देता है कि मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है स्वयं अपने अन्तस् में स्थित दिव्यत्व एवं सभी जीवधारियों में स्थित उसी दिव्यत्व से साक्षात्कार करना।
वैदिक धर्म के समान ही पारसी धर्म भी अतिप्राचीन (करीब 1000 ईसा पूर्व) हैं, जो श्रद्धा तथा आध्यात्मिक ज्ञान को अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। जैन धर्म (800 ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म (500 ईसा पूर्व) का जन्म उस समय हुआ था जब धर्म, मात्र अनुष्ठानों और कर्मकाण्ड में सिमट कर रह गया था एवं उनका इतना पतन हो चुका था कि निरीह पशुओं की बलि देकर ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता था। उन दिनों आन्तरिक शुद्धि पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता था। भगवान बुद्ध तथा भगवान महावीर ने मनुष्यों के समक्ष कठोर नैतिक नियम रखे। उन्होंने सत्य, प्रेम और अहिंसा को धार्मिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सद्गुण व अनुशासन माना। दोनों ही धर्मों का आधार सभी जीवों के प्रति करुणा है तथा इन दोनों ही धर्मों ने अहिंसा को धार्मिक जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य एवं सद्गुण माना है।
ईसा मसीह का जन्म उस समय हुआ जब मनुष्य स्वार्थी तथा दूसरों की पीड़ा के प्रति उदासीन हो चला था। उन्होंने उच्च नैतिक आचरण, प्रेम और दीन-दुखियों की सेवा को सबसे महत्वपूर्ण सद्गुण माना है।
उसी प्रकार मोहम्मद पैगम्बर (600 ईसवी) का जन्म उस समाज में हुआ जिसमें भौतिकवाद अपनी चरम सीमा पर था और नैतिक मूल्य पूर्णतया नष्ट हो चुके थे। उस समय के लोगों में धार्मिकता लेशमात्र भी नहीं रह गई थी। अत: इस्लाम एक प्रगतिशील धर्म है जिसमें कठोर नैतिक अनुशासन एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर के संकल्प के प्रति समर्पण की शिक्षा निहित है।
सबसे अन्त में (1600 ईसवी) गुरुनानक देव ने सिक्ख धर्म की स्थापना की जब समाज में विशेषकर भारत के विभिन्न भागों में हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे से लड़ाई कर रहे थे। सिक्ख धर्म में हिन्दू और इस्लाम धर्मों की अच्छाईयों का सामन्जस्य किया गया। ऐसा करके दोनों धर्मों में सामन्जस्य और आपसी समझ को बढ़ाने का प्रयास किया गया। इसने हिन्दू धर्म की मूर्तिपूजा और अन्धविश्वास का त्याग किया तथा उसकी धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार किया। साथ ही उसने मुसलमानों की कट्टरता का त्याग किया व इस्लाम के सार्वभौमिक भाईचारे को स्वीकार किया।
इस समय विश्व में कुल ग्यारह धर्म विद्यमान हैं जिन्हें आर्य, सिमेटिक तथा मंगोलियन इन तीन वर्ग समूहों में विभाजित किया गया है
आर्य समूह
(i) सनातन धर्म; (ii) जैन धर्म (iii) बौद्ध धर्म (iv) पारसी धर्म (v) सिक्ख धर्म।
सिमेटिक समूह
(i) यहूदी धर्म (ii) ईसाई धर्म (iii) इस्लाम धर्म।
मंगोलियन समूह
(i) ताओ धर्म (ii) कन्फ्यूशियस धर्म (iii) शिनताओं धर्म।
धर्मों में निहित समानताएँ
मारा अपने स्वयं के धर्म एवं दूसरे धर्मों के विषय में ज्ञान अधूरा है। इसी कारण हमारे मन में गलत धारणाएँ विद्यमान हैं, जिनके कारण हमें विभिन्न धर्मों में असमानताएंँ नजर आती हैं। परन्तु सत्य यह है कि सभी धर्मों में कुछ आधारभूत समानताएंँ हैं। वे सभी ईश्वर को परमशक्ति मानते हैं। सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर के प्रति एवं अन्य मनुष्यों के प्रति उसके कर्त्तव्यों की शिक्षा देते हैं। बाह्यदृष्टि से भी इन धर्मों में कई समानताएंँ हैं।