बचत उत्तम जीवन के लिए एक उपकरण है।
बूंद-बूंद से बनता सागर, अल्प बचत से धन भण्डार।
थोड़ा-थोड़ा प्रभु पद चलने से निश्चित है साक्षात्कार ॥
हममें से प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के प्रारम्भ से ही बचत की आदत को अंकुरित तथा विकसित करने का अभ्यास करना चाहिए। इस आदत का हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व, व्यवहार तथा जीवन शैली पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। बचत की आवश्यकता तीन स्तरों पर है –
(i) दैहिक (भौतिक) (ii) मानसिक (iii) आध्यात्मिक।
दैहिक स्तर के दो अंग हैं – भौतिक साधन और दूसरा हमारे शरीर से संबंधित स्रोत।
प्रथम स्रोत हैं – खाद्य पदार्थ, धन, प्राकृतिक साधन जैसे जल और विज्ञान की देन बिजली आदि की बचत आवश्यक है।
शारीरिक स्तर पर हमारी अपनी शारीरिक शक्ति को अकारण नष्ट करने की अपेक्षा उसकी बचत करनी चाहिए ताकि यह उचित एवं लाभप्रद उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोगी हो सके। उचित व्यायाम के अभाव, खान- पान की गंदी आदतों, तथा असंयमित रहन-सहन से हमारी शारीरिक शक्ति नष्ट हो जाती है।
मानसिक स्तर पर हमें अपनी मानसिक शक्ति की बचत करनी चाहिए और अपनी बौद्धिक क्षमताओं का विकास करना चाहिए जैसे विवेक, संकल्प-शक्ति, एकाग्रता आदि का विकास। भगवद्गीता में यह कहा गया है कि मन ही व्यक्ति का शत्रु तथा मित्र है। यह व्यक्ति का पतन कर उसे नष्ट कर सकता है। भय, लोभ, ईर्ष्या, क्रोध, चिंता तथा अहं हमारी मानसिक शान्ति व संतुलन को नष्ट कर देते हैं। मानसिक ऊर्जा और धैर्य की उपलब्धि के लिये विनम्रता, सहिष्णुता, मैत्री, दया तथा प्रेम आदि गुण विकसित करें।
आध्यात्मिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति में एक आत्मिक उत्कंठा विद्यमान होती है। जिसे दबाकर अथवा अवहेलना कर समाप्त न होने दें। आत्मिक प्रबुद्धता एवं प्रकाश को प्राप्त करने के लिए कर्त्तव्य परायणता, समर्पण और अनुशासन द्वारा उस उत्कंठा को सिंचित और फलित करें।
ध्यान रहे कि मनुष्य जन्म ईश्वर प्रदत्त अमूल्य भेंट है क्योंकि इस शरीर रूपी उपकरण के माध्यम से ही आध्यात्मिक पूर्णता एवं आत्मानुभूति उपलब्ध हो सकती है। अतः हमें इस जीवन को व्यर्थ नहीं गंँवाना चाहिये बल्कि सर्वांगीण विकास तथा श्रेष्ठफल के लिए निरन्तर क्रियाशील एवं जागरूक रहना चाहिए।
इन तीनों स्तरों पर मितव्ययिता को किस प्रकार आरम्भ और विकसित किया जा सकता है इस पर दृष्टिपात करें। आईये, दैहिक एवं भौतिक स्तर से हम उसका श्रीगणेश करें।
दैहिक एवं भौतिक स्तर:
हममें से प्रत्येक, भोजन के महत्त्व से परिचित है। हम दिन में एक समय का भी भोजन छोड़ने का विचार मात्र भी नहीं कर सकते। भोजन वास्तव में जीवनदाता है। यह न केवल हमारे शरीर बल्कि हमारी विचार शक्ति का भी पोषण करता है। हममे से कुछ इतने भाग्यशाली हैं कि वे भूख तथा उससे होने वाली पीड़ा से अनभिज्ञ हैं। ईश्वर सबके प्रति निष्पक्ष एवं दयालु है। यदि हम वास्तव में सावधानी से जानना चाहें, तो हमें ज्ञात होगा कि मानव समुदाय की बहुत बड़ी संख्या इतनी अभावग्रस्त है कि उन्हें बच्चों तक के लिए अन्न नहीं मिलता। सामान्यतया हमारे घरों में आवश्यकता से अधिक भोजन रहता है। जब हम भोजन समाप्त करते हैं तब हमारी थालियों में बहुत सा भोजन बच जाता है जिसे हम कूड़ेदान में फेंक देते हैं। हम इस अवधारणा से अनभिज्ञ हैं कि भोजन ही ईश्वर है। हमारे धार्मिक ग्रंथों का कथन है कि अन्न ही ब्रह्म हैं (अन्नंब्रह्म)। हम अपनी थालियों में अत्यधिक भोजन परोसने देते हैं। माताएंँ भी यह जानते हुए कि बच्चे अधिक नहीं खा सकेंगे, बच्चों की थालियों में अधिक भोजन परोस देती हैं। वास्तव में हमने भोजन के महत्त्व को नहीं समझा है। थालियों में हम जो छोड़ देते हैं उससे सड़कों पर मांँगने वाले एक या दो निर्धन बालकों की क्षुधा शांत हो सकती है।
बच्चों में यह सामान्य बात है कि भोजन संबंधी कुछ विशेष रुचियां होती हैं। यदि किसी परिवार में तीन या चार बच्चें हैं तो प्रत्येक अपनी रुचि की भोज्य वस्तु खाना चाहता है। सभी बच्चों को संतुष्ट करने के लिए माँ को तीन या चार प्रकार के व्यंजन बनाने हेतु परिश्रम करना पड़ता है। इस प्रकार बहुत सा भोजन व्यर्थ हो जाता है। जो भोजन बचाया जा सकता है वह अपने आप में सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से पुण्य का कार्य भी है। हमें इस विषय में सतर्क रहना चाहिये कि, यदि भोजन छोड़ दिया जाता है या फेंक दिया जाता है वह एक पाप है और ईश्वर के समक्ष महान अपराध है क्योंकि भोजन ईश्वर का प्रतीक है। यह कहा जाता है कि भारत में अन्न का अभाव, कम उत्पादन से नहीं बल्कि उसके व्यर्थ नष्ट होने, सुरक्षित रखने की समस्या आदि के कारण है। यह हमारा प्रमुख सामाजिक कर्त्तव्य तथा दायित्व है कि हम भोजन की बचत करें।
न जाने कितनी गन्दी बस्तियों और झोपड़ियों में लोगों को स्नान करने के लिए जल की तथा पढ़ने के लिए बिजली प्रकाश उपलब्ध नहीं है। हम बचत के द्वारा राष्ट्रीय हित में अपना योगदान दे सकते हैं।
मानसिक तथा आध्यात्मिक धरातल पर:
प्रतिदिन प्रातः अथवा सायं कुछ समय ध्यान करने से मन तथा शरीर की शिथिलता दूर होकर, स्फूर्ति प्राप्त होगी। समस्त विचारों का परित्याग कर शान्त बैठें और अपने धर्म के अनुसार परमात्मा का ध्यान करें। ज्योति ध्यान करो। यह अभ्यास, मस्तिष्क की शिथिलता को दूर कर स्मरण शक्ति बढ़ाता है तथा इससे एकाग्रता शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। कार्य करने की हमारी क्षमता में वृद्धि होती है। इस प्रकार प्रातःकाल उठने के बाद भगवान का स्मरण करने की आदत, भोजन के पहले तथा रात्रि में शयनपूर्व प्रार्थना करना एक लाभप्रद अभ्यास है।
अश्लील साहित्य पढ़ने तथा अश्लील चित्र या सिनेमा देखने से मन विकृत होता है अतः हम क्या पढ़ें और क्या सोचें इस बारे में हमें बहुत सोच विचार कर निर्णय करना पड़ता है। यह एक वैदिक प्रार्थना है –
‘भद्रं पश्यन्तु, भद्रं श्रृण्वन्तु भद्रं कुर्वन्तु’ अर्थात हम शुभ का ही दर्शन करें व शुभकल्याणी वचन ही सुनें, शुभ कल्याणकारी कार्य ही करें, सभी दिशाओं से उच्च पवित्र विचार प्राप्त हों। इस वैदिक मंत्र में हमारे समझने तथा आचरण में लाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है। विशेषकर वर्तमान युग में ऐसा करके हम पतित तथा क्षुद्र प्रभावों एवं दूषित वातावरण से स्वयं को बचा सकते हैं।
आर्थिक बचत:
धन सभी कार्यों में उपयोगी होता है। यह विश्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्तुओं में से एक है। ‘धनं मूलमिदं जगत्’ ऐसा कहा जाता है कि धन जगत का मूल है। जीवन के चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थ को, जो भौतिक कल्याण के लिए आवश्यक है एक विशिष्ट स्थान दिया गया है। इच्छाओं की पूर्ति तथा धन का उपार्जन धार्मिक मर्यादाओं के अन्तर्गत ही होना चाहिए और फिर इनका उपयोग जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिए होना चाहिए।
भारतीय सामाजिक पद्धति एवं संरचना में गृहस्थाश्रम, सारी गतिविधियों का केन्द्र है। इस आश्रम को एक भारतीय कुछ आर्थिक दायित्वों के रूप में स्वीकार करता है। वह मात्र अपने परिवार तथा बच्चों के प्रति उनके आर्थिक संरक्षण तथा अन्य कर्त्तव्यों का ही पालन नहीं करता बल्कि सामुदायिक जीवन के प्रति भी अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है। भगवद् गीता में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति दूसरों को न देते हुए यदि स्वयं ही भोजन करता है वह यथार्थ में चोर है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अन्य जरूरतमंद तथा साथियों की सहायता करना चाहिए। इस संदर्भ में स्मरण रखने की बात यह है कि यदि किसी व्यक्ति को स्वयं किसी वस्तु की आवश्यकता है वह स्वयं भूखा है तो वह दूसरों की सहायता करने के योग्य नहीं होता। विवेकानंद का कथन है कि भूखे पेट हरि भजन अर्थात् धार्मिक कार्य नहीं होता हो सकता।
उपनिषद् कहते हैं परिश्रम करो, धनोपार्जन करो, आपस में बांटो, उन्नति करो तथा सौ वर्ष तक जीवित रहो। इस प्रकार आर्थिक सम्पन्नता को जीवन मूल्यों में तथा समाज के हित के लिए ही अर्जित करना है। जैसा कि उपनिषद् घोषित करते हैं हम सौ वर्ष तक प्रसन्नतापूर्वक कैसे जी सकते हैं? यह तभी संभव है जब हम परिश्रम करके धन अर्जित करें, संचय करें, संवर्धन करें। कठिनाई के दिनों के लिए बचाकर रखें तथा पूरी सूझबूझ से कार्य करें। इस संदर्भ में दूरदर्शिता, पूर्वनियोजित विचार, संतुलित रहन- सहन और बचत महत्वपूर्ण है।
प्रकृति स्वयं हमें बचत की शिक्षा देती है। चीटियाँ भी हमारे समक्ष यही उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। कठिनाई के दिनों के लिए (वर्षाकाल) वे परिश्रम करके भोजन एकत्रित करती हैं। बुद्धिमान सम्राट सालोमन ने एक समय कहा था चीटियों के पास जाओ और उनकी आदतें सीखो। क्या हम भंडारगृह में वर्ष भर के लिए अनाज एकत्रित नहीं करते ? क्या हम वृद्धावस्था में भी किसान को वृक्ष उगाते नहीं देखते ? कृषक का दृढ़ विश्वास है वृक्ष अभी लगाओ भविष्य में उससे लाभ दूसरे मनुष्य प्राप्त करेंगे।
बचत का अभ्यास कार्य मात्र बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य नहीं है। वरन् उन परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुकूल आचरण भी है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता। जीवन अनिश्चितताओं से परिपूर्ण है। ऋतुओं की अनियमितता की भाँति प्रत्येक मनुष्य के जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते हैं। दुर्भाग्य भिन्न-भिन्न रूप में आ सकता है – अस्वस्थता, नौकरी का छूटना, दुर्घटनाओं आदि से मनुष्य की धन उपार्जित करने की शक्ति नष्ट हो सकती है। अप्रत्याशित व्यय भी हो सकता है। वृद्धावस्था के कारण शरीर के अंग शिथिल हो जाते हैं तथा मनुष्य की क्षमता कम हो जाती है। इन सब परिस्थितियों का सामना करने के लिए मनुष्य को पहले से ही तैयार रहना चाहिए। मनुष्य जब स्वस्थ रहता है तथा जैसे ही वह धन अर्जित करना आरंभ करता है तो उसे बचत भी करना चाहिए। भगवान श्री सत्य साई बाबा के इस कथन, ‘समय से काफी पहले प्रस्थान करो, वाहन को धीमी गति से चलाओ तथा अपने गन्तव्य स्थान पर सुरक्षित पहुँच जाओ’ का आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि भौतिक स्तर पर भी महत्त्व है।
छोटी-छोटी बूंदों से समुद्र भर जाता है उसी प्रकार बचत से भी, आरंभ में यह बचत कितनी ही कम क्यों न हो, कालान्तर में पर्याप्त धन एकत्रित हो जाता है। बचत में व्यक्ति विशेष को लाभ होता है। बचत से राष्ट्र को भी सम्पन्नता प्राप्त होती है। बैंक में धन जमा करने से ब्याज तथा सुरक्षा तो प्राप्त होती ही है, इस संचित अतिरिक्त धन को व्यावसायिक तथा औद्योगिक विकास के लिए भी पूंजी के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। बैंक, जीवन बीमा निगम तथा अन्य वित्तीय संस्थाएँ अपनी विभिन्न योजनाओं द्वारा लोगों को बचत की ओर आकर्षित करती हैं तथा उत्पादक गतिविधियों में पूंजी निवेश कर राष्ट्र की सहायता करती हैं। असंख्य लोगों को उत्पादन इकाईयों में रोजगार प्राप्त होता है तथा समाज के जीवनयापन के स्तर में वृद्धि होती है। इस प्रकार असंख्य लोगों को लाभान्वित करने के साथ ही बचत राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था को भी सुदृढ़ता प्रदान करती है।
परन्तु यह स्मरण रहे कि धन ही सब कुछ नहीं है। प्रभु ईसा मसीह ने कहा है कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए केवल रोटी ही पर्याप्त नहीं है। भौतिक संपदा के साथ आध्यात्मिक संपत्ति भी महत्वपूर्ण है और कदाचित अधिक महत्वपूर्ण है। हमें इस तथ्य की उपेक्षा नहीं करना चाहिये। इस प्रकार बचत की आदत नैतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में उतना ही महत्व रखती है जितना कि वह भौतिक ऐश्वर्य के संबंध में महत्वपूर्ण समझी जाती है। यदि हम आध्यात्मिक संपदा का अर्जन नहीं करते हैं तो हमारा जीवन अंततोगत्वा व्यर्थ सिद्ध होगा। क्या यह नहीं कहा गया है कि मनुष्य को क्या लाभ होगा यदि वह समस्त संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है परन्तु इस प्रक्रिया में अपनी आत्मचेतना खो बैठता है ?
कई वर्ष पूर्व प्रशान्ति निलयम क्षेत्र में भी श्री सत्य साई बाबा ने भारतीय स्टेट बैंक की शाखा का उद्घाटन करते समय इस (सांसारिक) बैंक तथा उस (आध्यात्मिक) बैंक का उल्लेख करते हुए कहा कि बैंक में जमा राशि निस्संदेह आवश्यकता के समय सुरक्षा प्रदान करेगी। यह आष्टी अर्थात संपत्ति का ही एक रूप है फिर भी जीवन की भांति यह सब नश्वर है। अतः आध्यात्मिक धन को प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए जो प्रभु की सेवा में समर्पित पवित्र जीवन से ही संभव है। आत्म साक्षात्कार के इच्छुक आस्तिक जनों के लिए यह संपदा जीवन प्रदायक एवं शाश्वत है। भौतिक पदार्थ नाशवान हैं तथा दिन प्रतिदिन उनका मूल्य भी कम होता जाता है। अन्य मनुष्य भी उन्हें हमसे छीनकर उन पर बलपूर्वक अधिकार कर सकते हैं। आध्यात्मिक संपदा इन दोषों से मुक्त है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करके उसकी अभिवृद्धि एवं संचय हेतु प्रयत्नशील होना चाहिए। इस अनुग्रह से ही मनुष्य, जीवन मृत्यु के बन्धन से मुक्त होकर शाश्वत सुरक्षा तथा अमरता को प्राप्त कर सकता है।
भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए संतुलित प्रयास आवश्यक है फिर भी धन की बचत का अपना महत्व है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के लिए धन आवश्यक है। धन से ही वह अपने, अपने परिवार तथा समाज के प्रति सभी उत्तरदायित्वों को पूर्ण कर सकता है।
बालक तथा युवा वर्ग के लिए विशेष बातें:
यदि कोई बचत नहीं कर सकता, विशेषकर विद्यार्थी और युवावर्ग के लोग, तो उन्हें चाहिए कि वे अपने विभिन्न खर्चों में कटौती कर अपने माता-पिता के सम्मुख वित्तीय मांगों को सीमित करें। विद्यार्थियों को तो अपने माता-पिता की कठिनाईयों को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि वे (माता-पिता) विभिन्न प्रकार की आर्थिक कठिनाईयों के बावजूद उनके खर्चों की पूर्ति करते हैं।
धन का अपव्यय उसी प्रकार एक सामाजिक अपराध है जैसा अन्न को व्यर्थ नष्ट करना। मितव्ययता की आदतें धन की बचत की आदत से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मितव्ययता के अभ्यास के बिना बचत की आदत का कोई अर्थ नहीं होगा।
सारांश – कृपया निम्न बिन्दु याद रखें – ‘बर्बाद न करें वरन बचत करें’ का निरन्तर अभ्यास निम्न जीवन मूल्यों को प्राप्त करने के लिए करें –
- भूखे व निर्धनों की भूख मिटाने के लिए अन्न बचायें।
- व्यर्थ के सभी खर्चों को टालकर जरुरतमंदों की सहायता करें।
- सभी मनुष्यों में स्नेह तथा सद्भावना का प्रसार करने के लिए धीरे और नम्रतापूर्वक बोलें।
- दूसरों की सेवा तथा उद्देश्यपूर्ण कार्यों के लिए समय का सदुपयोग करें।
- नित्य परमेश्वर का स्मरण (प्रार्थना) करें तथा शारीरिक तेज, मानसिक ऊर्जा एवं आत्मिक बल प्राप्त करने के लिए ध्यान करें।