स्वास्थ्य एवं आरोग्य
“अच्छा स्वास्थ्य संपत्ति है” और “स्वच्छता धर्मनिष्ठा है”। ये दोनों कहावतें प्रायः सब जानते हैं। सारांश में दोनों कहावतों का आशय यह है कि मनुष्य के सुख के लिए स्वास्थ्य तथा आरोग्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
एक प्रचलित कहावत यह भी है कि, “उपचार की अपेक्षा बीमारी की रोकथाम ज्यादा अच्छी है।” व्यक्ति और समाज के आरोग्य के लिए उसका स्वयं का तथा वातावरण का आरोग्यप्रद होना जरूरी है ताकि बीमारियों की रोकथाम के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्य बना रहे।
भारत में प्राचीन काल से स्वास्थ्य के संबंध में व्यापक दृष्टिकोण रहा है और इसलिए शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार से स्वस्थ रहने संबंधी चिन्तन हमारे यहाँ विद्यमान था। हाल के वर्षों तक पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य का अर्थ शारीरिक आरोग्यता से लगाया जाता रहा है। आधुनिक मनश्चिकित्सा विज्ञान का यह सिद्धान्त कि मानसिक अवस्था में परिवर्तन से शारीरिक परिवर्तन होते हैं, सर्वमान्य हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य को इस प्रकार परिभाषित किया है, “स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक कल्याण से युक्त वह स्थिति है जिसे यदि विकसित किया जाये तो बीमारी अपने आप ओझल हो जाती है।” इसमें आध्यात्मिक कल्याण का यद्यपि समावेश नहीं है तो भी शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा मानसिक स्वास्थ्य के महत्व की पुष्टि इस विश्व संस्था ने इन शब्दों में की है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है और स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर सुनिश्चित करता है।
व्यापक दृष्टि से स्वास्थ्य में आरोग्य, सफाई, पोषण, आम बीमारियों की रोकथाम तथा उपचार आदि सभी पहलू सम्मिलित हैं। स्वास्थ्य मानव कल्याण के लिए अति महत्वपूर्ण है।
रोगों के फैलने का कारण – विभिन्न कीटाणु
सब मानते हैं कि रोकथाम के उपायों को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस दृष्टि से आरोग्य का अधिक महत्व है। आरोग्य से तात्पर्य हैं स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए ऐसा उपाय जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक आरोग्य के अलावा वातावरण की शुद्धता भी शामिल है। स्वच्छता का महत्व इसलिए भी अधिक है कि बहुत सी बीमारियाँ गंदे स्थानों में पैदा हुए जीवाणुओं के प्रदूषण तथा उनके फैलाव से होती हैं। ये जीवाणु आकार में अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। जैसे मलेरिया के परजीवी जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही दिखाई देते हैं। कुछ बैक्टीरिया मोतीझिरा या प्लेग फैलाते हैं। मोतीझिरा के कीटाणु भी अति सूक्ष्म होते हैं। मोतिझिरा के कीटाणुओं को एक इंच में जोड़कर रखने पर इतनी जगह में 8 हजार कीटाणु समा सकते हैं। कुछ बीमारियाँ वायरस से होती हैं। ये जीवित और निर्जीव स्थिति में मध्य की स्थिति कहलाती है। ध्यान देने योग्य है कि सभी जीवाणु रोग नहीं फैलाते। कुछ जीवाणु उपयोगी होते हैं, और मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
जन स्वास्थ्य के उपाय
बीमारियाँ संक्रामक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों अथवा उन जीवों के द्वारा होती हैं जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक कीटाणु ले जाते हैं। कुछ बीमारियांँ दूषित पानी से जैसा कि हैजे में होता है, या फिर किसी अन्य संसर्ग से होती हैं। पंचायत तथा नगर पालिकाओं द्वारा पानी को रोग- दोष रहित एवं शुद्ध करने के लिए छानने और क्लोरीनीकरण की विधियाँ अपनाई जाती हैं जबकि घरों में उबालकर या अन्य उपाय से पानी शुद्ध किया जाता है। इससे पानी के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं तथा बीमारी रोकने में सहायता मिलती है। पेयजल की पूर्ति के साथ-साथ नगरीय प्रशासन जैसे ग्राम पंचायतों और नगर पालिकाओं का दूसरा बड़ा कर्तव्य है साफ-सफाई का। इससे आशय है कि कूड़ा-कचरा, मलमूत्र आदि की सफाई । प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह साफ-सफाई के काम में हाथ बँटाये । उपर्युक्त जलमल निकासी व्यवस्था तथा चूना, ब्लीचिंग पाउडर और फिनायल आदि के छिड़काव से बीमारियों की रोकथाम होती है। टीकाकरण द्वारा भी कई बीमारियों से बचा जा सकता है। पोलियों तथा टीटनेस के टीके इसके उदाहरण हैं। इन्हें स्वास्थ्य सुरक्षा का साधन माना जाता है।
व्यक्तिगत आरोग्य एवं स्वास्थ्य के उपाय
किसी भी समाज या देश का स्वास्थ्य मुख्य रूप से उसके प्रत्येक सदस्य के व्यक्तिगत आरोग्य पर निर्भर है। नियम और कानून बनाकर हम आरोग्यवर्धक स्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं परन्तु वातावरण को स्वच्छ एवं आरोग्यवर्धक बनाए रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग आवश्यक है। इसलिए व्यक्तिगत आरोग्य, पहली तथा महत्वपूर्ण आवश्यकता है। टीकाकरण के द्वारा भी कई बीमारियों से बचा जा सकता है।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति में अच्छी आदतों एवं अनुशासन का होना आवश्यक है। शारीरिक स्वास्थ्य के नियम नीचे लिखे अनुसार हैं –
- निजी आरोग्य और मुख की स्वच्छता।
- उचित व पौष्टिक आहार।
- शुद्ध वायु एवं उचित व्यायाम।
- उचित विश्राम (आराम और नींद)
- अन्य घटक ।
(I) निजी आरोग्य और मुख की स्वच्छता।
त्वचा: शरीर का बाह्य आवरण त्वचा है। चमड़ी के भीतरी हिस्से में नई कोशिकाओं का निरन्तर उत्पादन होता है। पुरानी कोशिकाएँ त्वचा से बाहर निरन्तर आती रहती है तथा बाहर फेंक दी जाती हैं। त्वचा के छिद्र धूल और पसीने के कारण बन्द होने से शारीरिक ताप नियंत्रण में बाधा पड़ती है। इसलिए स्वच्छ जल एवं साबुन आदि से प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक है। स्नान, शरीर और मन तथा स्नायुओं को ताजगी प्रदान करता है। स्नान के समय ईश्वर का नाम स्मरण करने से बाह्य एवं आंतरिक पवित्रीकरण होकर आत्मशुद्धि होती है। स्नान के बिना शरीर व मन में सुस्ती तथा बुद्धि मन्द रहती है। भगवान कहते हैं कंधी न करने तथा गन्दा सिर रखने और विविध शैली से बालों को संँवारने से भी मन – बुद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
मुख: दाँत, मसूढ़े व जीभ को भी साफ रखना चाहिए ताकि पाचन क्रिया और स्वास्थ्य अच्छा रहे। जीभ साफ रखने की आवश्यकता के बारे में भगवान बाबा का कहना है कि जीभ हमारे भोजन को निगलने के लिए सहायक है जिस पर शरीर तथा जीवन निर्भर करता है। यह हमारी वाणी का भी साधन है।
इससे बाह्य जगत से सम्पर्क होता है। इसे ये दोनों ही काम करने पड़ते हैं जबकि शरीर के दूसरे अंग केवल एक ही काम करते हैं। इसके सिवाय जीभ हमें यह भी सिखाती हैं कि समाज में हमें किस तरह आचरण करना चाहिए। जीभ, पैने दाँतों के बीच रहकर भी आघातों से बची रहकर क्रियाशील बनी रहती है। यह हमें शिक्षा देती है कि समाज और सांसारिक संघर्षों के बीच बिना आघात सहे किस प्रकार रहना चाहिए। मधुर मृदु वाणी एवं खाद्य की पवित्रता जीभ को शुद्ध रखती है। जीभ की स्थिति देखकर डॉक्टर शरीर के स्वास्थ्य की पहचान कर लेता है। हमारी वाणी संसार को हमारा स्वभाव बतलाती है। वाक्य से हमारे हृदय तथा मस्तिष्क की दशा का भी पता चलता है। संपूर्ण भारतीय इतिहास से हमें पता चलता है कि हमारे ऋषि मुनि हमें इस बात के लिए प्रेरित करते रहे हैं कि जीभ ईश्वर प्रदत्त है और इसके सहारे हमें ईश्वर गुणगान तथा नामस्मरण करना चाहिए ताकि ईश्वर पल – प्रतिपल हमारे चित्त में निवास करें। यही वह विधि है जिसके द्वारा हम भव बंधन से मुक्त हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार हमें कान, नाक, गला साफ और शुद्ध रखना चाहिए। वेशभूषा तथा वस्त्र साधारण होना चाहिए। बहुत अच्छे कपड़े पहनने से अहंकार पैदा होता है।
(II) उचित और पौष्टिक आहार
शारीरिक ताकत या कमजोरी, फुर्ती या आलस्य इस बात पर आधारित है कि हमारा आहार – विहार कैसा है ? भगवान बाबा कहते हैं, सामान्यतया आहार से तात्पर्य मुख के द्वारा ग्रहण किए जाने वाले भोजन से है किन्तु मुख से ही नहीं अपितु इन्द्रियों से भी, जो भी हम ग्रहण करते हैं वह सब आहार कहलाता है। अच्छा देखना व अच्छा सुनना भी उतना ही आवश्यक है जितना शुद्ध भोजन।
हमारे खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं आनंददायक होने चाहिए अर्थात् सात्विक गुणों से युक्त होना चाहिए ताकि आलस्य, नींद, काम तथा उत्तेजना न उत्पन्न हो । खाने में संयम, नियम और संतुलन अनिवार्य है। आहार प्राण रक्षक तथा आरोग्यवर्धक दोनों हैं। अत: मनुष्य तभी स्वस्थ और दीर्घायु हो सकता है जब वह संयम, नियम एवं संतुलित आहार का पालन करे। भगवान बाबा कहते हैं राष्ट्र में खाद्यान्न की कमी कुछ सीमा तक हमारे खान पान की खराब आदतों के कारण है। सप्ताह में एक बार उपवास मन और शरीर के लिए उपयोगी है। भगवान बाबा कहते हैं, दिन में एक बार खाने वाला योगी, दो बार खाने वाला भोगी और तीन बार खाने वाला रोगी बनता है।
आहार से न केवल शरीर पुष्ट होता है बल्कि मन भी विकसित होता है। भोजन के पोषक तत्वों से मस्तिष्क तेज होता है। आहार से पहले उसे ईश्वर को अर्पित करने से आहार प्रसाद बन जाता है और वह शरीर तथा मन दोनों का पोषण करता है।
ब्रह्मार्पणम्, ब्रह्म हर्वि और अहं वैश्वानरोभूत्वा (गीता के अध्याय 4 श्लोक 24, अध्याय 15 श्लोक 14) या गायत्री मन्त्र का उच्चारण अथवा अपने-अपने धर्मों में प्रचलित भोजन पूर्व प्रार्थना कर, आहार ग्रहण करने की आदत होना अनिवार्य है। संतुलित आहार में सामान्यतः प्रोटीन 10-15 प्रतिशत (शारीरिक निर्माण में सहायक) कार्बोहाइड्रेट (ऊर्जा देयक) 10-15 प्रतिशत, वसा 25 प्रतिशत के अतिरिक्त विटामिन ए, बी काम्प्लेक्स सी, डी तथा खनिज जैसे कैल्शियम, फॉस्फोरस होने चाहिए। वसा तथा कार्बोहाइड्रेटस से कैलोरी मिलती है। लोहा, मैंगनीज इत्यादि भी होना चाहिए। दूध में ये सभी पोषक तत्व रहते हैं और यह आदर्श आहार है। बहुत से (5 खनिज व विटामिन साग-सब्जियों में भी पाये जाते हैं। प्रोटीन चना और दालों में, कार्बोहाइड्रेटस चावल तथा गेहूँ में पाया जाता है। मनुष्य शाकाहारी और फल भक्षी प्राणी है, इसलिए माँसाहार उसके लिए बिलकुल ही उपयुक्त नहीं होता । अध्यात्म के जिज्ञासुओं को शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए। संतुलित पोषक आहार के मानक चार्ट भी हैं जो कैलोरी की मात्रा दर्शाते हैं।
(iii) शुद्ध वायु तथा उचित व्यायाम
स्वास्थ्य के लिए शुद्ध वायु तथा व्यायाम आवश्यक हैं। खुली हवा और मैदान के खेलकूदों से, प्रतिदिन योग-साधना करने से शरीर के अंग प्रत्यंग में फुर्ती आती है। प्राणप्रद वायु जीवन के लिए अनिवार्य है। खुले मैदानों में व्यायाम एवं योगाभ्यास करने से फेफड़ों में ऑक्सीजन अधिक मात्रा में पहुँचती है जिससे दूषित वायु कार्बन डाई आक्साइड तेजी से बाहर निकलती है। इससे शरीर पुष्ट होता है। योगाभ्यास के द्वारा मन स्वस्थ, पाचन में सुधार, भूख में वृद्धि और शौच आदि नियमित होते हैं।
(iv) उचित विश्राम (आराम और नींद )
विश्राम का आशय कार्य या व्यवसाय की क्रिया बन्द करने से नहीं है। अपने कार्यों में परिवर्तन भी विश्राम ही है। इसकी आवश्यकता पेशियों और मस्तिष्क की थकावट दूर करने के लिए पड़ती है। पूर्ण विश्राम के लिए नींद आवश्यक है। नींद मनुष्य की आयु, व्यवसाय व आदत पर निर्भर है। हाल के शिशुओं को 18 से 20 घंटे, एक वर्ष के बच्चों को 14, किशोरावस्था में 8-10 और वयस्कों के लिए 6 से 7 घंटे की नींद आवश्यक होती है। भोजन के बाद तुरन्त नहीं सोना चाहिए। सोने का समय सुनिश्चित होना चाहिए तथा सोते समय सिर मुँह नहीं ढांँकना चाहिए।
सोने से पहले ईश्वर का नामस्मरण और प्रार्थना करने से बुरे स्वप्न नहीं दिखाई देते तथा अच्छी नींद आती है। उसी तरह उठने पर ईश्वर चिंतन व प्रार्थना से तन और मन दोनों स्वस्थ हो जाते हैं। इससे दिन की शुरुआत पवित्र होती है। नगर संकीर्तन से न केवल स्वयं बल्कि दूसरों के लिए भी चारों ओर सुखदायी वातावरण तैयार होता है। इसीलिए बाबा ने कहा है नगर संकीर्तन समाज की श्रेष्ठतम सेवा है।
(v) अन्य घटक
धूम्रपान एवं मद्यपान आदि से शरीर में धीरे-धीरे विष प्रवेश करता जाता है तथा जिगर व फेफड़े नष्ट होने लगते हैं और मनुष्य मृत्यु की ओर जल्दी अग्रसर होता है।
बीमारी का सबसे बड़ा कारण है भय। ईश्वर के प्रति विश्वास और भक्ति भावना से मन का भय नष्ट हो जाता है। बाबा सबके कल्याण के लिए हैं। वे सबको आश्वस्त करते हैं कि, “मैं जब यहाँ हूँ तो भय क्यों और किसलिए ?”
भय के समान क्रोध, घृणा, ईर्ष्या आदि का भी हमारे शरीर पर बुरा असर पड़ने के साथ-साथ हमारी शान्ति भंग होती है और आनंद में भी बाधा पड़ती है। स्वास्थ्य पर क्रोध का सबसे अधिक बुरा असर पड़ता है।
घर में शांति तथा आनंदमय वातावरण होना चाहिए। जिस घर में विनम्रता, संतोष, शान्ति एवं पवित्रता की महक रहती है उसमें रहने वाले स्वस्थ और सुखी होते हैं।
उपसंहार
इस प्रकार मनुष्य का अच्छा स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि शरीर, मनोभावों तथा आरोग्य संबंधी स्वच्छता आदि की आम बातों पर उसने कितना ध्यान दिया है और उसका सामाजिक व्यवहार किस प्रकार का है। यौगिक क्रियाओं से न केवल शरीर स्वस्थ होता है बल्कि आयु में भी वृद्धि होती है। स्वास्थ्य के लिए आरोग्यवर्धक सामाजिक वातावरण व शांति भी नितान्त आवश्यक है।
बीमारियों की रोकथाम संबंधी उपायों का और भी अधिक महत्व है। धार्मिक यात्राओं और बड़े मेलों के अवसर इस संबंध में बहुत ध्यान रखना चाहिए। हमें सेवा करने के लिए आगे आना चाहिए तथा जनता की सफाई संबंधी आवश्यकताएँ पूरी करनी चाहिए। प्रभावी और सफल सेवा के लिए हमें सफाई कार्य का ज्ञान व अनुभव प्राप्त कर प्राथमिक उपचार भी सीखना चाहिए।
स्वास्थ्य संपत्ति है, स्वच्छता ईश्वरपरायणता का ही रूप है। |
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