- दर्शन के बिना धर्म अंधविश्वास बन जाता है और धर्म के बिना दर्शन कोरा नास्तिकवाद बन जाता है।
- जो आप को बद्दुआएँ देता है, उसके प्रति कृतज्ञ रहो क्योंकि वह तुम्हारे लिये दर्पण के समान है, जो तुम्हें तुम्हारी मानसिक छवि देखने का अवसर देता है। श्राप एवं गाली आत्मसंयम के अभ्यास का अवसर हैं। अतः खुश हो जाओ एवं उसे आशीर्वाद दो।
- ईश्वर एवं तुम्हारे ईश्वर प्रेम के मध्य कुछ भी मत आने दो। उससे प्रेम करो, केवल प्रेम करो तथा संसार को सिखा दो कि प्रेम क्या होता है। प्रेम तीन प्रकार का होता है। एक माँगता है परंतु देता कुछ भी नहीं है। दूसरा आदान-प्रदान है अर्थात् माँगता भी है और देता भी है; तीसरा प्रेम के बदले,प्रेम की भी अपेक्षा किये बिना, सिर्फ प्रेम देता है। भगवान को प्रेम करो जैसे पतंगा दीपक से या ज्योति से करता है।
- भगवान बुद्ध ने अपने सबसे बड़े शत्रु को भी स्वतंत्र कर दिया। क्योंकि वह भगवान बुद्ध से अत्यधिक घृणा करता था, जिससे कि वह सतत् बुद्ध के विषय में ही चिंतन करता रहता था। भगवान बुद्ध के सतत् चिंतन से उसका मन पवित्र हो गया तथा वह मुक्ति का पात्र बन गया। इसलिये जानो कि सतत् ईश्वर चिंतन तुम्हें भी पवित्र बना देगा।
- समस्त बाधाओं, विफलताओं और असंभावनाओं में निरंतर दृढ प्रयत्न करते रहने की भावना, सदैव कर्म में रत रहने की वृत्ति ही आत्मा की श्रेष्ठता एवं निर्बलता में अंतर स्पष्ट करते हैं।
- अपने दोष एवं दुर्गुणों को जानने से हमें मूल्यवान शिक्षा मिलती है। यदि मनुष्य निष्ठापूर्वक प्रयत्न करे, साहस एवं दृढ संकल्प से सही रास्ते पर चले तो वह दिन प्रतिदिन विकास की ओर अग्रसर होता है।
- जिस तरह पुष्प अपनी सुरभि वायु में फैलाता है इसी तरह जब तुम अपने प्रेम का प्रसार करोगे तभी पूर्णता प्राप्त कर सकोगे।
- जिस प्रकार भिन्न-भिन्न रंगों के सुन्दर पुष्प अपनी मधुर सुगंध फैलाते हैं, उसी प्रकार प्रेमरस रूपी मिठास से भरा हुआ मनुष्य चारों ओर प्रेमरस बिखेरता है।
- यदि तुमने अपनी स्वार्थपरता की भावना से मुक्ति पा ली है, तो स्वर्ग के द्वार तुम्हारे लिये कभी बंद नहीं होंगे।
- मेरे प्रेम की ज्योति के प्रकाश में साथ-साथ चलो, तुम्हारी परछाईयाँ नहीं पड़ेंगींं।
- स्नेह, सम्मान एवं भक्ति तीनों क्रमशः एक दूसरे के पदचापों का अनुसरण करते हैं।
- कुछ लोग भगवान को अपनी आत्मा अर्पित करते हैं, कुछ अपने कर्म, कुछ अपना धन अर्पित करते हैं, परंतु कुछ होते हैं जो ईश्वर के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। अर्थात् वे अपनी आत्मा, जीवन कर्म व धन सभी ईश्वर को अर्पण करते हैं। वास्तव में वे ईश्वर की सच्ची संतानें हैं।
- सच्ची शिक्षा से तात्पर्य है, स्वयं में निहित उत्कृष्टता की अभिव्यक्ति करना। मानवता की पुस्तक के अलावा अन्य कोई भी पुस्तक इसके लिये श्रेष्ठ नहीं हो सकती।
- इससे क्या लाभ कि हमारी प्रतिदिन की प्रार्थनाओं में हम भगवान को सबका परमपिता कहते हैं परंतु अपने प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक रूप से प्रत्येक मनुष्य के साथ भाई की तरह व्यवहार नहीं करते हैं।
- बिना प्रार्थना के कर्म करना, नेत्रहीन की तरह अंधकार में वस्तु खोजने के समान है, प्रार्थना द्वारा कर्म सच्चा और प्रभावशाली बन जाता है।
- मानवीयता से भरी शिक्षा ही सच्ची शिक्षा है। उसके अंतर्गत केवल बुद्धि का प्रशिक्षण ही नहीं वरन हृदय की परिष्कृति एवं आत्मानुशासन भी समाहित होना चाहिये।
- बार-बार घिसने पर भी चंदन अपनी सुगंध कायम रखता है। गन्ने को टुकड़ों में काटने के बाद भी वह मीठा ही स्वाद देता है, सोने को सतत गलाने के बाद भी उसकी चमक एवं सार्थकता की विशेषता स्थायी रहती है। इसी प्रकार महान आत्माएँ भी अंत तक अपने जन्मजात गुणों को नहीं छोड़तीं, न ही अपने पथ से विचलित होती हैं।
रत्न
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