सत्य, धर्म, शांति, प्रेम, अहिंसा को आत्मसात करना
यह ब्रह्मांड एक नैतिक व्यवस्था द्वारा संचालित है। सृष्टि का कण-कण अपने- अपने धर्म का निर्वाह करने हेतु इन अटूट नियमों से बंधा है। ईश्वरीय विधान तथा लक्ष्य की प्राप्ति है।
मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिबिम्ब है अर्थात् कुछ सीमा तक वह दैवी गुणों से सम्पन्न होता है। मनुष्य की व्यापक धारणा तथा समझ के अनुसार, ईश्वर समस्त गुणों का भण्डार (गुणागार संसार पारंनातोऽहं) एवं परिपूर्ण है। ईश्वरीय अंश होने से मनुष्य में मी दैवत्व के बीज रहते हैं। ईश्वर ने इन्हें अंकुरित और विकसित होकर पूर्णत्व प्राप्ति हेतु मनुष्य को बुद्धि तथा विवेक प्रदान किए हैं। अतएव मनुष्य सत्य और असत्य का निर्णय कर आत्म निरीक्षण, आत्म संयम तथा सदाचरण से आत्मोन्नयन करके सत्य से साक्षात्कार तथा पूर्णता की प्राप्ति कर सकता है। मनुष्य का जन्म सृष्टि के अन्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ होता है। पशुओं में आत्मिक चेतना नहीं होती फलस्वरूप वे मनोवेग से मनोविकारों के वशीभूत होकर व्यवहार करते हैं। किन्तु मनुष्य ईश्वर प्रदत्त बुद्धि तथा विवेक के अनुसार आचरण अपनी निम्न वृत्तियों को वश में करके उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य में पूर्ण दिव्यत्व को प्राप्त करने की क्षमता होती है। पशु से मानव और मानव से ईश्वर अर्थात् दिव्यात्मस्वरूप की स्थिति प्राप्त करना ही ईश्वरीय सृष्टि में विकास का विधान है।
यद्यपि पूर्णत्व की प्राप्ति, जन्म जन्मांतर तक चलने वाली लम्बी और विलंबित प्रक्रिया है। मानवोचित मौलिक गुण तथा जीवन मूल्य सभी मनुष्यों में निहित रहते हैं। किन्तु यह देखा जाता है कि मनुष्य मनमाना आचरण करता है जिसके फलस्वरूप अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर वह अधोगति को पहुँच चुका है। यदि हम अपने आचरण व स्वभाव को फिर से संयमित, नियमित और परिशुद्ध नहीं करते तो हमारा मानव होने का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होगा। यद्यपि हम विकास की उच्चतर स्थिति में आ चुके हैं तो भी अब हम अपने को मानव कहलाने का दावा नहीं कर सकते।
हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने के लिए शास्त्रों में नैतिक मूल्य और सदाचरण के विधि निषेध (क्या करो और क्या नहीं करो) को निर्धारित किया गया है। इन्हीं को हम धर्मशास्त्र कहते हैं। यदि हम इस नियमावली का उल्लंघन न कर उसका पालन करते हैं तो हम अपने को सही अर्थों में मानव सिद्ध कर सकते हैं। तभी हम ब्रह्माण्ड के नियन्ता-नीति-नियमों तथा ईश्वर की इस सृष्टि में स्थापित सामन्जस्य के अनुकूल और अनुरूप रह पाएंगे।
आधारभूत पाँच मूल्य:
धर्मशास्त्रों में निर्दिष्ट नीति के सभी नियमों का संक्षिप्त सार, पाँच सिद्धान्त सत्य, धर्म, शांति, प्रेम और अहिंसा हैं। इनमें समस्त प्रकार के नैतिक तथा आचार विषयक नियमों का समावेश हुआ है। विश्व में सभी धर्मों का आधार स्तम्भ यही मूल्य हैं। श्री सत्य साई संगठन के कार्यकर्ताओं का सेवा क्षेत्र तथा जीवन इन्हीं के द्वारा अनुप्राणित है। आईये हम इन्हें समझने का प्रयत्न करें और अपने दैनिक जीवन में उतारकर श्रेष्ठ बनें