- स्वयं के कर्तव्यों की पूर्ति करते समय उत्पन्न तनाव को, दबावों को सुसह्य बनाने के लिये भगवत् नामस्मरण के साथ कार्यों को संपन्न करना चाहिए।
- कीर्तन केवल सही राग एवं ताल पर निर्भर नहीं होता। यह प्रेम के अत्यानंद में विभोर होकर या ईश्वर के प्रति श्रद्धायुक्त अर्पण भाव से करना चाहिए।
- दुष्ट प्रवृत्ति के लोग दूसरों के क्षुद्र दोषों को भी बड़ी उत्सुकता से देखते हैं जबकि वह अपनी बड़ी-बड़ी कमजोरियों को जानते हुए भी उनकी उपेक्षा करते हैं।
- दुर्जन व्यक्तियों की सहायता करने से दुःखदायी परिणाम निकलते हैं जैसे साँपों को दूध पिलाने से विष की ही वृद्धि होती है।
- कौन-सा नाम हम जपते हैं, यह मह्त्वपूर्ण नहीं है; बजाय इसके कि हम उसे नियमपूर्वक नित्य प्रति कितना लेते हैं।
- कर्मफल की इच्छा रखना ही वस्तुतः हमारे एवं भगवान के मध्य बाधा है, जबकि भगवान के लिए निरपेक्ष प्रेम होने से सब वस्तुओं पर विजय प्राप्त होती है।
- क्रिया या कर्म के साथ स्वाभाविक रूप से उसके परिणाम या फल जुड़े रहते हैं। भगवान को समर्पण किया गया कर्म, इस प्रकार समर्पित न किये गये कर्म की अपेक्षा अधिक फलदायी होगा।
- क्रोध और असहिष्णुता ही सच्चे ज्ञान के दो शत्रु हैं।
- प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता एवं सामर्थ्य की सीमाएँ होती हैं। परंतु जब वह आत्म प्रशंसाकर, दर्प के साथ कहता है कि वह सब प्रकार के कार्यों का उत्तरदायित्व निभा सकता है, तब भगवान वहीं उसका अहंकार तोड देते हैं।
- जब कभी मैं गलती करने वाले किसी मनुष्य को देखता हूँ – मैं अपने आप से कहता हूँ “मैंने भी गलती की है|” जब मैं किसी विषयलोलुप व्यक्ति को देखता हूँ, मैं अपने आपसे कहता हूँ कि “मैं भी कभी ऐसा था|” इस प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी से मैं अपना संबंध अनुभव करता हूँ तथा अनुभव करता हूँ जब तक हम में से छोटे से छोटे जीव सुखी नहीं होता है तब तक मैं भी कभी सुखी नहीं हो सकता हूँ|
- कभी मेरा विचार था ‘ईश्वर ही सत्य है’ अब मैं जानता हूँ कि ‘सत्य ही ईश्वर है।’
- प्रार्थना ही एकमात्र साधन है जो हमारे दैनिक कार्यों में क्रमबद्धता प्रतिसाद एवं शांति लाती है। वह प्रातःकालीन चाभी है और सायंकालीन अर्गला (कुंडी) है।
- जब कभी हमें विषम परिस्थिति एवं विपत्ति का सामना करना पड़ता है जिसका हम निवारण नहीं कर सकते हैं, मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि व्यक्ति को प्रार्थना एवं उपवास करना चाहिए। शरीर के लिए भोजन इतना आवश्यक नहीं है जितनी कि आत्मा के लिए प्रार्थना।
- प्रार्थना किसी वस्तु की याचना नहीं है। वरन् वह आत्मा की आंतरिक उत्कंठा है। आत्म-बलिदान एवं त्याग की उत्तम एवं शक्तिशाली कला सीखने के लिए प्रार्थना प्रथम एवं अंतिम पाठ है।
- अहिंसा क्षमाशीलता की चरम सीमा को ही कहते हैं, और अहिंसा निर्भयता की भावना के बिना संभव नहीं है।
- प्रयास करने में जो सुख एवं संतुष्टि है वह प्राप्ति में नहीं है। पूर्ण प्रयास ही पूर्ण विजय है।
- सारा विश्व हमारे उपयोग के लिए है, परंतु किसी वस्तु की कामना मत करो। इच्छा या कामना मनुष्य की कमजोरी है, जो उसे भिखारी या याचक बना देती है। परंतु हम ‘अमृतपुत्र’ अर्थात् ईश्वर के साम्राज्य के राजपुत्र हैं, भिखारी या याचक नहीं।
रत्न
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