“आदि युगीन के उस प्रणव ॐ को सुनो, जो कि हमारे और ब्रह्माण्ड के हृदय में गूंज रहा है।”-बाबा
हिन्दुओं के लिए ‘ॐ’ सबसे पवित्र शब्द है। उनके लिए यह सगुण एवं निर्गुण परमात्मा का पर्यायवाची शब्द है। यह ईश्वर का नाम है और समस्त संसार में व्याप्त है। महामौन से निकला यह नाद ब्रह्म ईश्वर की प्राप्ति का साधन है। यह महामंत्र भी माना जाता है। श्री सत्य साई के सर्व धर्म चिन्हों में ‘ॐ’ शब्द हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करता है।
कहा जाता है कि प्रारंभ में केवल ब्रह्म था और भी महामौन के रूप में था। यही प्रथम ध्वनि ओंकार थी। इसी ध्वनि से सम्पूर्ण सृष्टि, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच तत्वों के रूप में व्यक्त हुई। यह सृष्टि का जीवन सिद्धांत है। ओंकार की ध्वनि प्रणव भी कहलाती है। क्योंकि यह प्राणों में प्रवाहित है तथा संपूर्ण जीवन में व्याप्त है। इस वैदिक मंत्र के महत्व पर प्रचुर साहित्य विद्यमान है। विश्व में इससे अधिक पवित्र और महत्वपूर्ण प्रतीक कहीं भी नहीं मिल सकता। उपनिषदों की वाणी और वेदों के रहस्योद्घाटन में इस अक्षर का इतिहास है। यह वैदिक पद है:
प्रजापति वै इदं अग्रासीत्
तस्या वाक् द्वितिया आसीत् वै परम ब्रह्म।
“प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्म थे, जिनके साथ शब्द था, तथा शब्द ही यथार्थ में परम ब्रह्म था|”
न्यू टेस्टमेंट में संत जॉन द्वारा धर्म चर्चा में यही प्रतिध्वनित होता है।
“प्रारम्भ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।”
तैत्तरीय उपनिषद् में ॐ को संबोधित करते हुए कहा गया है कि तू ही ब्रह्म का आवरण है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म अंतर्यामी है और ओम (ॐ) में निहित है| अतएव ओम् का आह्वान परमात्मा का आह्वान करना है।
प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है कि ॐ इति एकाक्षर ब्रह्म, ॐ यह अक्षर ब्रह्म है। आगे कहा गया है कि केवल ॐ अक्षर ही परमेश्वर का यथार्थ स्वरूप है। केवल ॐ का जप करते हुए प्रम पुरुष का ध्यान करना चाहिये।
“माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है” नाभि केन्द्र (ब्रह्म) में पहुँचने के लिए और अखिल सृष्टि का जो कारण है उस नाद ब्रह्म को जानने के लिए मन एक साधन है। ब्रह्म साध्य है और ब्रह्मरूपी लक्ष्य को मन रूपी बाण से भेदना चाहिए। ओंकारोपासना से तीक्ष्ण किए गये अंत: करण रूपी तीर को उपनिषदीय शिक्षा रूपी धनुष पर चढ़ाकर एकाग्र चित्त से खींचकर परब्रह्म को ही लक्षित कर शर संधान करना चाहिये। तात्पर्य यह है, कि प्रणव अर्थात् ॐ बाण है और ब्रह्म लक्ष्य है। (उपनिषद वाहिनी)।
महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में यह भी कहा है- “तस्य वाचकः प्रणव: अर्थात् परमात्मा को बताने वाला नाम प्रणव है। (ॐ)”
उपर्युक्त उद्धरण केवल ओंकार का महत्व दर्शाते हैं। ओंकार प्रभु-प्राप्ति का साधन होते हुए भी स्वयं ईश्वर ही हैं ।
अन्य धर्मों में भी ॐ में मिलते-जुलते किन्तु परिवर्तित रूप में कुछ शब्द हैं। ईसाई इसे आमेन और मुसलमान आमीन कहते हैं| किन्तु अर्थ और प्रयोग में वे ओम् के समान नहीं मानते हैं।
साकार ईश्वर के सभी रूपों और नामों का प्रतीक ॐ है
उपनिषदों में निराकार ईश्वर का ही अधिक गुणगान किया गया है, किन्तु लोक धर्म का आधार सगुण (साकार) ईश्वर ही है। अधिकांश लोगों के लिए निराकार ब्रह्म पर मन को केन्द्रित करना कठिन है। वही निराकार निर्गुण परब्रह्म अपनी अगाध अनुकम्पा से विभिन्न रूपों और नामों को धारण करके युग-युग से मानव को अपनी दिव्य महिमा बताने के लिये कई बार अवतरित हुआ हैं। वह अमूर्ति ही मूर्त बनकर मानव के लिए बोधगम्य हो गया। अपने हृदय को प्रिय लगनेवाले तथा रुचि के अनुकूल ईश्वर के रूप मैं इष्ट देवता की परम्परा चल पड़ी।
इस तरह ईश्वर के विभिन्न रूप शिव, विष्णु, राम, कृष्ण, देवी, गणेश आदि हैं। वास्तव में मानव के मन और हृदय में बसे सभी नाम और रूप ॐ में समाये हैं।
प्रत्येक नाम में एक बीजाक्षर है। इसी आधार पर ‘अ’ से ब्रह्मा ‘उ’ से विष्णु और ‘म’ से महेश्वर का संकेत होता है। ‘ब्रह्मा’ का अंतिम अक्षर ‘अ’, विष्णु का अंतिम अक्षर ‘उ’ और महेश्वर का प्रथम अक्षर ‘म’ मूल अक्षर माने जाते हैं। ओम् का उच्चारण ‘अ उ मू’ के रूप में होता है। इस तरह देवत्व के तीनों पक्ष त्रिदेव इसमें निहित हैं, जिस पर हिन्दुओं की आस्था है।
आइये हम देखें कि ईश्वर के अन्य नाम जैसे लक्ष्मी, पार्वती, गणेश, हनुमान या इष्टदेव के रूप में हृदय में प्रतिष्ठित अन्य देव स्वरूपों का किस प्रकार ओम् ही के द्वारा प्रतिनिधित्व होता है।
‘अ’ ब्रह्मा का संकेत है। सरस्वती का निवास कहाँ है? वे ब्रह्मा की जीभ में वास करती हैं। वे ब्रह्मा की अभिव्यक्ति हैं, उनकी वाक् शक्ति है। इस प्रकार वे ब्रह्मा से अभिन्न हैं। ब्रह्मा के ज्ञान और विवेक का रूप ही सरस्वती है। अतः भगवती सरस्वती का स्वरूप ‘अ’ में निहित है।
लक्ष्मी कहाँ रहती हैं? उनका वास विष्णु के वक्षस्थल में है। विष्णु से उनका शाश्वत संबंध है। वे विष्णु की विशुद्ध अनुकम्पा का स्वरूप हैं। विष्णु क्षीर सागर में वास करते हैं। किन्तु उनका वक्षस्थल स्वयं ही करूणा और अनुकम्पा का सागर है। फिर लक्ष्मी की उत्पत्ति सागर से हुई है, वास्तव में वे स्वयं करुणा रूपी सागर हैं जो विष्णु के हृदय में हिलोरे ले रही हैं। अर्थात् वे विष्णु की करुणा और कृपा का स्वरूप हैं। अतः विष्णु के प्रतीक ‘उ’ में लक्ष्मी का स्वरूप भी अंतर्निहित है।
पार्वती कौन हैं? शिव के अतिरिक्त पार्वती का अस्तित्व या वास कहीं नहीं है। वे शिव की ही अर्धागिनी हैं। शिव अर्धनारीश्वर (आधा पुरुष और आधा नारी रूप) हैं । पार्वती उनकी महाशक्ति का स्वरूप हैं। पार्वती के बिना शिव एकाकी, उदासी और भ्रमणशील हैं, श्मशान में घूमने फिरने वाले हैं। जब पार्वती उनके वामांग में विराजती हैं तभी उ रूप होता है। इस प्रकार महेश्वर के प्रतीक ‘म’ में माता पार्वती भी अंतर्निहित हैं|
गणेश और सुब्रह्मण्यम् कौन हैं? वे शिव और पार्वती के पुत्र हैं। हनुमान कौन हैं? वे राम के चरण कमलों को अपनी प्रेम पूरित हथेलियों से पकड़े हुये उनके अनन्य भक्त हैं।
दत्तात्रय कौन हैं ? वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तीनों देवों की केवल एक ही रूप में अभिव्यक्त हैं।
इससे हम समझ सकते हैं कि ओम् की परिधि से बाहर ईश्वर का कोई भी नाम अथवा उपाधि नहीं है। ईश्वर की हर परिकल्पना और नाम की अभिव्यक्ति ओम् है। ओम हमारी वैयक्तिक अथवा विश्व स्तरीय इच्छाओं की पूर्ति कर सबकी संतुष्टि करता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि सभी देवगण ‘ओम’ के उच्चारण का प्रत्युत्तर देते हैं। इसीलिये यह कहा जाता है कि ‘ॐ’, भगवान बाबा का, सीधा टेलीफोन नम्बर है। जैसे ही हम ‘ॐ’ कहते हैं वैसे ही, चाहे भगवान पुट्टवर्ती, बृन्दावन, अनंतपुर या और कहीं भी हों हमारा उनसे संबंध जुड़ जाता है।
भगवन बाबा ने यह भी कहा कि ओंकार और राम नाम एक साधन है | ‘राम’ प्रणव के प्रतीक हैं और अ, उ, म, क्रमश:, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हैं।
स्वर संसार के स्फोट का उपादान कारण ब्रह्म हैं जो स्वर के विज्ञान और तथ्य का आधार है।
सभी शब्दों और ध्वनियों का मूल प्रणव में है। जो भी शब्द बोले जा सकते हैं वे अ उ, म के स्वर ग्राम में आते हैं। यदि हम उदाहरण के लिये देवनागरी लिपि को देखें तो ज्ञात होगा कि क ख ग……… आदि ‘क’ वर्ग के व्यंजन गले से (अ के समान) च, छ, ज आदि ‘च’ वर्ग के तालू में और (3 के समान) ट ठ ड ढ आदि ‘ट’ वर्ग के जीभ के आगे के भाग से तथा प फ ब भ ‘प’ वर्ग के दोनों होंठों को मिलाने से निकलते हैं (‘म’ के समान) प्रणव का शब्द ब्रह्म भी कहा गया है। चूँकि ‘ॐ’ शब्द में सभी श्वास ध्वनियाँ तक समाहित हैं। इसलिये इसे वेदों का सार कहते गया है। ईश्वर के प्रत्येक नाम प्रणव में निहित हैं। अतएव हर प्रकार की आराधना और आराध्य ईश्वर के रूप और नामों का यह आधार है।
ॐ से चेतना की सभी स्थितियों का जैसे भौतिक अथवा आध्यात्मिक चेतना तथा दैहिक से देवत्व की स्थिति का बोध होता है।
‘उपनिषदीय घोषणा है कि आत्मा ही ब्रह्म है। इस अद्वैत सत्य का परिचायक, ॐ है।’ हम सब चेतनता की उच्चावस्थाओं, जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परिचित हैं। हममें से बहुत लोग अक्सर इन तीनों अवस्थाओं से गुजरते हैं, परंतु योगीजन इनसे परे परम ज्ञान की भावातीत स्थिति में रहते हैं जिसे तुरीयावस्था कहते हैं। यह परम चेतना की इंद्रियातीत और जागृत, स्वप्न, सुषुत्पि तीनों में व्याप्त अवर्णनीय अवस्था है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। इसमें तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठकर आत्म साक्षात्कार और सच्चिदानंद की अनुभूति होती है | ॐ इन्हीं चारों अवस्थाओं का सूचक है। पूरे माण्डूक्योका निचोड़ केवल यही है।
जिस तरह समुद्र, उसमें उठनेवाली लहरों का आधार है उसी तरह जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का आधार आत्मा है। ‘अ’ जागृत अवस्था अर्थात स्थूल शरीर, के ‘उ’ स्वप्नावस्था अर्थात् सूक्ष्म शरीर एवं ‘म’ सुषुप्ति अवस्था के सूचक हैं। जब ॐ का उच्चारण होता है तो उच्चारण के अंत में होंठ बंद होने पर भी वही ओंकार ध्वनि धीमी और अशब्द रूप में कानों में गूँजती रहती है। यह अक्षरहीन प्रतिध्वनि जो प्रशांति में गूँजती है उसे ही अमात्रा ओऽम् कहते हैं और यही जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से भी परे जो आत्मा है, उसका सूचक है। यह स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर से भी परे हमारी वास्तविकता की जड़ और अस्तित्व का आधार है। यह अमात्रा ओऽम् ही तुरीयावस्था का सूचक है जिसमें बाह्य जगत का सब कुछ भूलकर हम आत्मानंद में ही रहते हैं। तुरीयावस्था जो लोकातीत चेतना की स्थिति है उसे प्राप्त करने में अमात्रा ओऽम् बड़ा सहायक है। ओंकार कहने के बाद कुछ देर तक अमात्रा ॐ के अंत की गूँज को अपनी अंतस् की गहराई में पूर्ण शांति से अनुभव करना चाहिये तभी हम अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा को जान सकते हैं। यह दिव्यात्म
स्वरूपाली स्थिति है। ॐ का आलाप मंद ध्वनि से करना चाहिये। अकार को गले से निकालना (नाभि केन्द्र स्थल से उठकर) उकार को उत्तरोत्तर जिह्वा के ऊपर से ऊँचा ले जाकर अंत में ओष्ठों में मकार में समाप्त करना चाहिये। मकार में आने के बाद मोड़ लेकर उसी तरह धीरे से उतारना चाहिये जिस तरह उसे चढ़ाया था। उतारने में भी उतना समय लगाना चाहिये जितना उसे चढ़ाने में लगा था। फिर अमात्रा ॐ के गूँजने के साथ उसे हृदय की गुहा की शांति में लय कर देना चाहिये। भगवान बाबा कहते हैं कि ये अवस्थाएँ अपनी बुद्धिरूपी पुष्प की सूचक हैं, विकसित होने पर ही ये फल बनकर अंत में मधुर रस से भर जाने पर अपने आपको वृक्ष (भौतिक जगत) से मुक्त कर लेती हैं।
जीवन का सार ॐ विश्व व्याप्त प्राणाधार कंपन है और हमारे श्वासों की सूक्ष्म ध्वनि है।
सूक्ष्म श्रवण शक्ति संपन्नजनों को प्रत्येक ध्वनि में ईश्वरीय अनुभूति होती है सभी पंचतत्व इसी ध्वनि से कंपायमान हैं। मंदिर में घंटा बजाने से निकली ध्वनि का अर्थ ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराना है और यही ईश्वर का आह्वान करना है। घंटा नाद के समान ही मानव के अंतस् में भी ओऽम् की ध्वनि शांत स्वर में निरंतर गूँज रही है। सुषुम्ना नाड़ी का अबाध स्पंदन जो हमारे कानों की श्रवण शक्ति के परे है वह भी केवल ओडम् की ही ध्वनि है। यह गूँज ओऽहम् की है जो ओऽम् में समाप्ति होती है। यही हमारी श्वास की सूक्ष्म ध्वनि है। सो (वह ईश्वर) है (मैं अर्थात् अहंकार), इस तरह यह ईश्वर से मिलने का माध्यम है। इसका निरंतर ध्यान करने से अद्वैत अर्थात् परमात्मा तथा जीवात्मा में अभेद (जीवो ब्रम्हैवाना परः) का ज्ञान प्राप्त होता है। यही अद्वैतानुभूति है।
ईश्वर के बड़े शक्तिमान नामों के प्रारंभ में भी ओऽम् लगता है।
ऐसा माना जाता है कि कोई भी पूजा, चाहे वह उनके माता-पिता शिव व पार्वती की ही क्यों न हो गणेश जी के पूजन से प्रारंभ होने पर फलित होती है। इसी तरह कोई भी मंत्र या नाम के आगे ॐ लगाकर उच्चारण किया जाता है। स्वयं गणेश जो प्रणवाकार हैं उनके नाम के आगे ॐ लगाकर ‘ॐ गणेशाय नमः’ कहा जाता है। इसलिये यह समझ लेना चाहिये कि मंत्र के पहले ॐ लगाने से मंत्र की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।
ओंकार उच्चारण विधि :
चार प्रकार से ॐ का उच्चारण किया जाता है (1)वैखरी, (2)मध्यमा, (3)पश्यंति, (4)परा।
वैखरी :किसी भी जप के उच्चारण में ध्वनि प्रक्रिया की 4 स्थितियों को पार करना पड़ता है। पहली स्थिति जोर-जोर से बोलकर उच्चारण करने की है ताकि साधक का मन इस आवाज पर केन्द्रित होने को बाध्य हो जावे। मन जब तक जप का अभ्यस्त नहीं हो जाता तक साधना के प्रथम चरण में यह बहुत उपयोगी है। शब्द ध्वनि की इस पद्धति को वैखरी कहते हैं।
मध्यमा :जप की दूसरी स्थिति मध्यमा है जहाँ मंत्र का उच्चारण नहीं सुनाई देता, केवल होंठ भर मंत्र जप के समय हिलते है। इस शब्द और अशब्द के बीच की स्थिति को मध्यमा विधि कहते हैं। वैखरी में आवाज मुँह से निकलती है और मध्यमा में यह कंठ से तो निकलती है, पर होंठो से बाहर नहीं जाती।
पश्यंति :जप की तीसरी विधि में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी तरह मंत्र का उच्चारण नहीं होता। इसमें तो जप मन में होता रहता है। इस मानसिक जप में उच्चारण का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। इस ध्वनि रहित जप पद्धति को पश्यंति कहते हैं। इसमें सप्रयास जप का बोध नहीं रहता। जप तो साधक के जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है और वह बिना किसी प्रयत्न के दृष्टा होकर मंत्र के अनुभवों को प्राप्त करता है। यथार्थ में यह प्रक्रिया अंतर्यात्रा है, किंतु इस अवस्था में मंत्र ध्यान में रहता है भूलता नहीं।
परा : चौथी अवस्था में साधक मंत्र भी भूल जाता है और चेतना में केवल मंत्र का प्रभाव शेष रहता है। इसे परा स्थिति कहते हैं। इसमें जप से संबंधित सभी प्रसंग एक ओर छूट जाते हैं और साधक चेतना से दिव्यात्म स्वरूप की स्थिति में पहुँच जाता है। परा का अर्थ है इंद्रियातीत आत्मबोध अथवा, आत्म ज्ञान की अवस्था जो तुरीया कहलाती है। यहाँ केवल आनंद के सिवा कुछ नहीं है, आनंद सागर में आनंद की उत्ताल तरंगे हिलोरे ले रही हैं।
ॐ एक महामंत्र है। यह वह कुंजी है जिससे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जब नाभि स्थल से पूर्ण मनोयोग से ॐ का उच्चारण करते हैं, तो हमारी चेतना उर्ध्वमुखी होकर ऊपर उठती हुई अंत में ब्राह्मी स्थिति में पहुँचा देती है। इससे प्रसुप्त कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है।
मन किसी भी आदत में सहज ढल जाता है। हमें ॐ कार के उच्चारण में जागरूक रहकर प्रयास करना चाहिए। इसलिए हमें अपने इष्टदेव जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं शिव के नाम, ॐ के साथ इस तरह जोड़ना चाहिए जैसे ‘“ॐ श्री रामाय नमः” “ॐ श्री कृष्णाय नमः”, “ॐ नमो नारायणाय नमः”, “ॐ नमः शिवाय” “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”, “ॐ श्री साई राम” आदि। इस प्रकार के उच्चाण से हमारे मन में ॐकार जप सहज रूप से होने लगेगा। अचेतन अवस्था में भी हमारे मन में सदैव ॐकार का जप इसी प्रकार चलता रहेगा जिस प्रकार द्रौपदी, राधा और मीरा सोते जागते निरंतर श्रीकृष्ण का नाम हृदय में जपा करती थी। सहज ही चल रही श्वास की तरह सतत् नाम जप हमारा स्वभाव बन जाना चाहिये।
ओंकार का जप मोक्ष, अमरत्व और ईश्वर से चिर मिलन प्राप्त कराता है।
गीता के अध्याय ८ के तेरहवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अक्षर ब्रह्म योग’ में कहा है कि,
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म, व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं, स याति परमां गतिम्॥
“जो पुरुष, ‘ॐ’, ऐसे एक अक्षर रूपी ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थ स्वरूप मेरा चिंतन करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|”
यदि अंतिम क्षणों में हम ॐ का स्मरण अथवा उच्चारण करें तो हम जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाकर कृष्णाकार हो जाते हैं। जीवात्मा की प्रभु से मिलन की आकांक्षा की पूर्ति होने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता। यही मानव जीवन का उद्देश्य है और यही प्रभु के साथ शाश्वत मिलन है।
ओंकार जप से हमारी श्वास पवित्र होती है एवं आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य का भी लाभ होता है।
निरंतर ओंकार जप में हमारी लगन रहे। यह हमारे आचरण में ढलकर हमारा स्वभाव बन जाये।
ओंकार जप के साथ अपनी श्वासों को नियमित कर एक हो जाना चाहिये। इससे शारीरिक लाभ, मानसिक पवित्रीकरण, ज्ञानोदय, हृदय विकास और आध्यात्मिकता का प्राकट्य सभी कुछ एक साथ संपन्न होता है। यद्यपि अंतिम ध्येय की प्राप्ति भले ही दूर लगे किन्तु भौतिक कल्याण, प्रखर व प्रकाशवान बुद्धि जैसे पुरस्कार की प्राप्ति तो बहुत निकट रहती है। इंदिरादेवी ने अपनी पुस्तक ‘योगा फॉर यू’ में कहा है: ‘बहुत थोड़े से लोग वायु की अचानक कमी के कारण मरते हैं, किन्तु अधिकांश तो पर्याप्त श्वास न लेने के कारण मरते हैं। हमारी श्वसन क्रिया बड़ी अव्यवस्थित है हम गहरी सांस नहीं लेते इससे वह ऊपर ही रह जाती है, जिससे हमारे फेफड़े कभी भी भरपूर नहीं फूलते हैं। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि हमारे फेफड़ों का आधा भाग सारे जीवन में सदैव दूषित वायु से भरा रहता है। जब तक श्वास प्रश्वास की क्रिया को गहरी नियंत्रित और एक लय नहीं किया जाता तब तक यह पार्थिव शरीर अस्वस्थ रहेगा और मानसिक क्षोभ के कारण शांति दुर्लभ रहेगी। हमारी सांसों के नियंत्रण के लिये ओंकार का जप बड़ी मदद करता है। हमें गहरी सांस जप के साथ समन्वित करना होगा, एकाग्रता
आयेगी और हम लौकिक एवं परलौकिक दोनों ही क्षेत्रों में श्रेष्ठतम उपलब्धि प्राप्त कर सकेंगे।
ईश्वर से प्रार्थना है कि ओम् आज से हमारा साथी बनकर अभिन्न हो जाये। ओम् के प्रत्येक सरल से जप के साथ हम क्रमश: भगवान बाबा के निकट होते जा रहे हैं। यह सुनिश्चित है कि देर या अबेर कभी न कभी उनके चरण कमलों तक पहुँचकर उनके निकटतम और प्रिय हो जाएँगे।
ओम्कार प्रार्थना :
ॐ कारं बिंदु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।
कामदं मोक्षदं चैव, ॐ काराय नमो नमः।।
चन्द्र बिन्दु सहित ॐकार, यह सूचित करता है कि हम ओंकार के अंश हैं, जहाँ से हमारी उत्पत्ति हुई है। इस सत्य को हृदयस्थ करते हुए योगीजन हमेशा ओंकार का ध्यान करते हैं। वह (ओंकार) हमारी मनोकामना को पूर्ण कराने वाला एवं मोक्ष प्राप्ति कराने वाला है। हम उस ओंकार को नतमस्तक हो कर प्रणाम करते हैं।
‘जय गुरु ओंकारा, जय जय सद्गुरु ओंकारा।”