यदा यदा हि धर्मस्य
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श्लोक
- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
- अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
भावार्थ
भगवान श्री कृष्ण घोषणा करते हैं कि हे अर्जुन, जब-जब धर्म की हानि होती है। (सदाचार की अवनति होती है) तथा अधर्म की वृद्धि होने लगती है तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ, अर्थात् स्वयं को प्रकट करता हूँ, अवतार लेता हूँ।
व्याख्या
यदा-यदा | जब-जब |
---|---|
ही | निश्चित रूप से |
धर्मस्य | धर्म की |
ग्लानि | क्षीण होना, अवनति होना |
भवति | होती है |
भारत | हे अर्जुन (भरत के वंशज) |
अभ्युत्थानम् | उन्नति अथवा उत्थान होना |
अधर्मस्य | अधर्म की |
तद् | तब |
आत्मानं | स्वयं अपने रूप को |
सृजामि | प्रकट होना, अवतार लेना |
अहम् | मैं |
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