भगवान कौन है ?
‘तुम कौन हो ?’ एक बार यदि हमने इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर लिया तो ‘भगवान कौन हैं’ इस प्रश्न का उत्तर जानने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। क्योंकि तुम और भगवान दोनों एक ही हैं। तुम भी दिव्यत्व प्राप्त कर सकते हो।
तुम भी दिव्यत्व प्राप्त कर सकते हो। मुझमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुममें नहीं है। मुझमें स्थित दिव्यत्व तुममें सुप्त रूप में है। भिन्नता सिर्फ यही है।
स्वर्ग इस धरा से ऊपर स्थित, कभी समाप्त न होने वाली सुखद सुंदर वसंत ऋतु नहीं है। स्वर्ग तो आंतरिक अनुभूति है।
अहं का नाश करो, इन्द्रियों पर संयम कर मन एवं मस्तिष्क पर नियंत्रण करो; यही अमरत्व प्राप्ति का मार्ग है।
श्री सत्य साई बाबा
प्रत्येक जीव उस परम दिव्य परमात्मा की संतान है। इसलिये एक दूसरे पर दोषारोपण एवं आरोप प्रत्यारोप न करते हुए, एवं स्वजनों का अहित चाहे बिना, भाई चारे (भ्रातृत्व) की भावना से युक्त आचरण करना चाहिए। प्रत्येक को दूसरे की प्रिय या इच्छित वस्तु से उतना ही प्रेम करना चाहिए जितना कि हम अपनी वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखते हैं। जिन वस्तुओं से दूसरों को प्यार है उनमें दोष नहीं निकालने चाहिए और न ही उन पर हँसना चाहिए। इसके विपरीत दूसरे की प्रिय वस्तु से हमें प्रेम करने का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक के विचार एवं भावों का आदर करना चाहिए। इस प्रकार का सत्य एवं प्रेम युक्त आचरण ही भारत वासियों की विशेषता है।
स्वार्थ परता:
साहस, नम्रता तथा क्षमाशीलता ये तीन गुण मानव के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश आज के समाज में अंतहीन स्वार्थपरता की भावना ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। समाज में मानव द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य की प्रेरणा स्वार्थ पूरित ही होती है। हमारे समाज की अनुशासनहीनता व अशान्ति का मुख्य कारण बढ़ती हुई स्वार्थपरता ही है। समाज में यदि हम सुख एवं शांति का वातावरण लाना चाहते हैं तो हमें इस दुष्प्रवृत्ति के राक्षस को समाप्त करना होगा। यह तभी संभव है जब हम इस मार्ग में बाधा स्वरूप हमारी चार प्रकार की कमियों को दूर करें।
- लापरवाही
- श्रद्धा व विश्वास की कमी
- अहंकार और
- ईर्ष्या। इन्हें हमारे हृदय से त्यागना होगा।
प्रत्येक अच्छे वृक्ष से अच्छे एवं मीठे फल प्राप्त होते हैं तथा कड़वे व खट्टे (दूषित) वृक्ष के फल कड़वे होते हैं। एक अच्छा वृक्ष कभी खराब फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार खराब वृक्ष से अच्छा फल नहीं प्राप्त हो सकता। कड़वे एवं खराब वृक्षों को काट दिया जाता है तथा अग्नि में जलने के लिये फेंक दिया जाता है। अतः वृक्षों की पहचान उसके फलों से होती है।
ईसा मसीह
स्त्रियों का सम्मान करो :
नारी की वंदनीय समझो। नारी पूजनीय होती है। उनके प्रति सदैव सद्भावना रखनी चाहिए।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।अर्थात् जहाँ नारियों का आदर एवं सम्मान होता है वहाँ देवता स्वयं निवास करते हैं। लेकिन जहाँ स्त्रियों का अनादर किया जाता है वहाँ किया गया प्रत्येक कार्य निष्फल हो जाता है। यदि किसी परिवार में स्त्रियाँ उचित आदर एवं सद्व्यवहार न मिलने के कारण दुःखी होकर आँसू बहाती हैं, वह परिवार जल्दी ही नष्ट हो जाता है।
स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी (सुख समृद्धि की देवी) होती हैं। जो मनुष्य ऐश्वर्य एवं समृद्धि चाहते हैं, उन्हें स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए। स्त्रियों का पोषण एवं आदर करके ही मनुष्य समृद्धि की देवी (लक्ष्मी) का आदर करते हैं तथा समृद्धि के शिखर पर पहुँच सकते हैं। इसके विपरीत स्त्रियों को कष्ट देने से वह समृद्धि की देवी (लक्ष्मी) को क्लेश पहुँचाते हैं।
मनु (भारत के विधि निर्माता)
सीता
ईसाई स्त्रियों के हृदय में जो स्थान मेडोना का है वही स्थान, (आदर एवं श्रद्धा) हिन्दुओं के हृदय में अयोध्या की महारानी सीता जी का है। सीता जी संपूर्ण मानव जाति के लिये एक आदर्श हैं। वे सदैव उत्कृष्ट प्रेम, सम्मान, त्याग धैर्य एवं संयम इन गुणों के लिये लाखों भारतीयों के हृदय में सर्वोच्च स्थान एवं श्रद्धा की पात्र रहेंगी। उन्होंने जीवन में पग-पग पर कठिनाईयों, विपत्तियों एवं दुःखों का सामना करके हमारे सम्मुख नारी का एक महान आदर्श रखा। सौंदर्य-साम्राज्ञी एवं महारानी होते हुए भी उन्होंने कभी सुख सुविधा का मार्ग नहीं चुना। उन्हें राजमहल के भोग-विलास, सुख, ऐश्वर्य से अधिक संतों व विद्वानों के सरल जीवन से प्रेम था। यहाँ तक कि वनवास की अवधि में भी उन्होंने वन के कठोर वातावरण व असुविधापूर्ण परिस्थितियों में स्वयं को प्रसन्न रखा। वन के प्रत्येक ऋतु के अनुसार होने वाले परिवर्तन से वे परिचित थीं। उषाकाल में जब पक्षी चहचहाते थे, विविध रंगी फूल खिलते थे तथा उन पर ओस कण चमकते थे। तब उनके साथ वे भी आनंद उत्साहपूर्ण वातावरण को आत्मसात करती थीं। संध्याकाल की पूजा में उनके साथ सहभागी होती थीं तथा हर परिस्थिति एवं वातावरण को आत्मसात कर अपना सामंजस्य प्रस्थापित कर लेती थीं। जब वे साम्राज्ञी बनीं तब भी वे यह सत्य कभी नहीं भूलीं कि सम्राट सदैव अपनी जनता की भलाई के लिये ही कार्य करते हैं न कि स्वयं के सुख भोगों के लिये। उन्होने कटुतम एवं गहनतम दुःखों का अनुभव किया परंतु अपने दुःख एवं कष्ट में स्थिर चित्त, शांत एवं गंभीर रहीं। ऐसी थीं सीता, अयोध्या की महारानी, प्रेमरूपी मुकुट पहने, दुःख की चादर से आवृत्त नारियों में अतुलनीय, अनुपम थीं तथा आदर्श नारी थीं।
भगिनी निवेदिता
देवी माँ – दिव्य स्वरूपा माँ
कामना (इच्छा) क्रोध एवं भय से मन अपवित्र बन जाता है तथा इनसे मन में दूषित विचार आते हैं। मन इन विचारों से चंचल एवं विकृत हो जाता है।
यह एक सामान्य अनुभव की बात है कि जब मनुष्य अपनी माँ के सम्मुख उपस्थित होता है तो उसके मन में दूषित विचार नहीं आते हैं। जो अनुभव लौकिक जननी के संबंध में सत्य है वही, अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में हमारी दिव्य स्वरूपा माँ के संबंध में अखण्ड सत्य है। जिस प्रकार जल में स्नान करने से शरीर स्वच्छ हो जाता है, उसी तरह जप, ध्यान, तीर्थ आदि कर्म करने से, अर्थात् दिव्य माँ के ध्यान रूपी पवित्र जल में स्नान करने से मन पवित्र हो जाता है। दिव्य माँ का चिंतन यही पवित्र जल या ध्यान तीर्थ है।
कांची के जगद्गुरू शंकराचार्य