त्वयि मयि चान्यत्रैको
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श्लोक
- त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
- व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
- भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
- वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्॥
भावार्थ
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ।
व्याख्या
त्वयि | तुझमें |
---|---|
मयि | मुझमें |
च | एवं |
अन्यत्र | किसी दूसरी जगह |
एकः | एक |
विष्णुः | भगवान विष्णु, ईश्वर |
व्यर्थं | बेमतलब |
कुप्यसि | क्रोधित हो जाते हो |
मयि | मुझमें |
असहिष्णुः | असहनशील |
भव | होना |
समचित्तः | समान विचार, समान चित्त |
सर्वत्र | हर जगह |
त्वम् | तुम |
वांच्छसि | चाहते हो |
अचिराद् | अविलंब |
यदि | अगर |
विष्णुत्वम् | विष्णुत्व, ईश्वरत्व। |
Overview
- Be the first student
- Language: English
- Duration: 10 weeks
- Skill level: Any level
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